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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
पर
पधारणे की अर्ज करी ? सूरिजी उन श्राद्धवर्ग के साथ राजसभा में पधारे। राजाने वडे ही सत्कार के साथ सूरीजी को नमस्कार कर आसन का आमन्त्रण किया सूरीश्वरजी महाराज पनि कांबली डाल आसनपर विराजगये इतने में तो नागरिको सें सभाका होल चकार - बद्ध भरगया राजा के पास वह यज्ञाध्यक्षक बडी वडी जटावाले भी बेठ गये तत्पश्चात् आचार्यश्रीने " अहिंसा परमो धर्मः " विस्तृत्व विवेचन के साथ व्याख्यान दीया धर्मकी रहस्य और आत्मकल्यान का मार्ग एसी उत्तम शैली से बतलाया की वहाँ उपस्थित श्रोतागण के कठोर पत्थर नहीं पर बज्र सादृश्य हृदय भी एसे कोमल हो गये की उनकी अन्तर आत्मा से हिंसा के भरने वहने लग गये ओर यज्ञ जैसे निर्दय निष्ठुर कर्म्म की तरफ घृणा होने जगी मानो अहिंसा भगवती उन लोगो के हृदय कमल को अपना स्थान ही न बना लिया हो ?
सूरीजी महाराज का व्याख्यान के अन्तमें वह नामधारी ब्राह्मण अर्थात् यज्ञाध्यक्षक एकदम बोल उठे कि महात्माजी ! यहाँ कोइ श्रीमालनगर नहीं है कि आपके दया दया की पुकार सुन स्वर्ग मोक्षका फल देनेवालें यज्ञ करना छोड दे यह धर्म नूतन नहीं पर हमारे राजपरम्परासे चला आया है इत्यादि । इसपर श्राचार्यश्रीने कहा कि महानुभावों ! न तो मैं श्रीमालनगरसे धनमाल ले आया हु । न मुझे यहाँसे कुच्छ ले जाना है । सदुपदेशके अभाव भद्रिकलोग आत्मकल्यान के रहस्त को छोडके हज़ारों लाखो प्राणियों के खुनसे रक्त की नदी बहानेवाले कुकृत्योंसे नरक के