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________________ पद्मावती नगरी और सूरिजी. . (३५) परम अधर्म ही है और निश्चय कर परभवमे बदला अवश्य देना पडेगा। आचार्यश्रीने अपने सन्मुख बेठे हुवे ब्राह्मणोंसे कहा क्यो भट्टजी महाराज! आपके हृदयमें भी अहिंसा भगवती का कुच्छ संचार हुवा है या नहीं ? कारण मैने प्रायः आप के महार्षियों के वाक्य ही आप के सन्मुख रखे है. हे ! भूर्षियों अापके उपर जनता ठीक विश्वास रखती है और अपना स्वल्प स्वार्थ के लिये विश्वास रखनेवालों को अधोगतिके पात्र बनाना यह एक विश्वासघात और कृतघ्नीपना है इससे आपखुद डुबते हो और आप के विश्वासपर रहनेवालोकोभी गेहरी खाडमें डुबाते हो अगर आप अपना कल्यान चाहाते हो तो वीतराग-ईश्वर सर्वज्ञ प्रणित शुद्ध पवित्र अहिंसामय धर्म को स्वीकार करो तांके पूर्व किये हुवे दुष्कम्मोंसे छुटके भविप्यके लिये आपकी सद्गति हो यह हमारी हार्दिकभावना है। - इसपर ब्राह्मणोंने कहाँ कि आपके सर्वज्ञ पुरुषोंने कोनसा धर्म बतलाया है कि जिनसे आप हमारा भला कर सको ? सूरीश्वरी महाराजने कहा कि हे महानुभावो ? धर्मका मूल सम्यक्त्व ( श्रद्धा ) है वह समकित दो प्रकार का है ( १ ) निश्चय सम्यक्त्व (२) व्यवहार सम्यक्त्व जिसमें यहाँ पर मैं व्यवहार सम्यक्त्व के लिये ही संक्षिप्तसे कहुंगा जैसे देवत्व श्री जिनेष्ववा, मुमुक्षपुगुरुत्वधी । धर्म धीरार्हता धर्मः तत्स्यात् सम्यक्त्व दर्शनम् ॥
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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