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जैन जाति महोदय प्र० तीसरा.
देव - अरिहन्त वीतराग सर्वज्ञ सकलदोष वर्जित कैवल्यज्ञान दर्शन अर्थात् सर्व चराचर पदार्थों कों हस्तामल की तरह जाने देखे जिनका श्रात्मज्ञान तत्त्वज्ञान वडे ही उच्चकोटी का हो पर कल्याणके लिये जिन का प्रयत्न हो सर्व जीवो प्रति जिनों की समदृष्टि हो 'अहिंसा परमोधर्मः ' जिन का खास सिद्धान्त हो क्रीडा कुतूहल क्रीड़ा और पुनः पुनः अवतार धारण करने से सर्वथा मुक्त हो वह देव समझना चाहिये.
गुरू — अहिंसा सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य और निस्पृहीता एवं पंचमहाव्रत पांच समिति तीनगुप्ति, दशप्रकार यतिधर्म्म, सतरह प्रकार संयम, बारह प्रकार तप, इत्यादि शम दम गुणयुक्त भव्य प्राणियों का कल्यान के लिये जिनोने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया हो उसको गुरु समझना चाहिये ।
धर्म - अहिंसा परमोधर्मः ही धर्मका मुख्य लक्षण हैं इसके साथ क्षमा तप दान ब्रह्मचर्य देवगुरु संघ की पूजा स्वाधर्मीयों की सेवा उपासना भक्ति आदि करना. जिस धर्म से किसी प्राणियोंको तकलीफ न पहुँचे और भविष्य में स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति हो उसको धर्म समझना.
तत्पश्चात् सूर्गश्वरजी महाराजने मुनिधर्म्म पंच महाव्रत और श्रावक ( गृहस्थ ) धर्म के बारह व्रत और इनके आचार व्यवहार का खुब विस्तार से व्याख्यान किया जिसका प्रभाव जनता पर इस कदर हुवा कि उसी स्थान पर