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जैन जाति महोदय. जिनसे संसारव्यवहारका सब कार्य प्रचलीत हुवा अर्थात् आज संसारभरमें जो कलाओं व लीपियों चल रही है वह सब भगवान् ऋषभदेवकी चलाइ हुइ कलाओंके अन्तर्गत है न कि कोइ नविन कला है। हाँ कभी कीसी कला व लीपीका लोप होना और फीर कभी सामग्री पाके प्रगट होना तो कालके प्रभावसे होता ही श्राया है।
__ भगवानके चलाया हुवा नीति धर्म-संसारका प्राचार व्यवहार कला कौशल्यादि संपूर्ण आर्यव्रतमें फैल गया मनुष्य असी मसी कसी आदि कर्मसे सुखपूर्वक जीवन चलाने लगे पर आत्मकल्याणके लिये लौकिकधर्मके साथ लोकोत्तर धर्मकि भी . परमावश्यक्ता होने लगी।
भगवानके आयुष्यके ८३ लक्षपूर्व इसी संसार सुधारने में निकल चुके तब लौकान्तिकदेवने आके अर्ज करी कि हे दीनोद्धारक !
आपने जैसे नीतिधर्म प्रचलित कर क्लेश पाते हुवे युगलमनुष्योंका उद्धार किया है वैसे ही अब आत्मीक धर्म प्रकाश कर संसारसमुद्रमें परिभ्रमन करते हुवे जीवोंका उद्धार किजिये आपकी दीक्षाका
वस्तुशुद्धि, वैद्यकक्रिया, सुवर्णरत्नभेद, घटभ्रम, सारपरिश्रम, अंजनयोंग, चूर्णयोग, हस्तलाघव, वनपाटव, भोज्यविधि, वाणिज्यविधि, काव्यशक्ति, व्याकरण, शालिखंडन, मुखमंडन, कथाकथन. कुसुमगुंथन, वरवेष, सकलभाषा विशेष, भभिधानपरिज्ञान,
आभरण पहनने, भृत्पोपचार, गृह्याचार, शाढ्यकरण, परनिराकण, धान्यरंधन, केशवंधन, वीणावादीनाद, वितंडावाद, अंकविचार, लोकव्यवहार, अंत्याक्षरिका, इसके सिवाय नौनारू नौकारू जो कुंभकार सुतार नाइ दरजी छीपा मादिकी कलाओ अर्थात् यों कहे तो दुनियोंका सब व्यवहार हो भगवान् आदिनाथने ही चलाया था ।