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जैन जाति महोदय. कुच्छ इच्छा है और न मेग मनः पदार्थोमें है में केवळ यह ही चाहता हुँ कि जिनदेव कि तरफ मेरी आत्मा में शान्ति हो ।
भावार्थ-रामचन्द्रजीने भी जो जिनदेव रामजीसे पहला ओर उत्तमोत्तम हुवे उसका अनुकरण किया है। यह श्लोक भी मिथ्या कल्पनाओको नष्ट कर जैनो की प्राचीनता बतला रहा है । (११) दक्षिणामूर्ति सहस्त्रनाम ग्रन्थ में
"जैन मार्गरतो जैनो जित क्रोधो जितामयः । अर्थ-शिवजी कहते है कि जैन मार्ग मे रति करने वाले जैनी क्रोधकों जीतनेवाले और रोगो को जितनेवाले वैसे में हुँ । शिव अपने हजार नामो में एक नाम जैनी बता कर क्रोधकों जितनेवाले बनते है ।
भावार्थ-शिवजी के पूर्व भी जैन थे और उन जैनो का अनुकरण कग्ने को ही शिवजी कह रहे है। (१२) दुर्वासा ऋषिकृत महिम्न स्तोत्र
तत्र दर्शने मुख शक्ति रि ति च त्वं ब्रह्म कर्मेश्वरी
कर्तार्हन पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिव स्त्वं गुरुः ।। अर्थ--वहां दर्शनमें मुख्य शक्ति प्रादि कारण तु है और ब्रह्मा भी तुं है माया भी तुं है कर्ता भी तुं है अर्हन् भी तुं है और पुरुष हरि सुर्य बुद्ध और महादेव गुरु वे सभी तुं है । यहां अर्हन् कहै के तीर्थकर की स्तुति की है। (१३) भवानी सहस्त्र नाम ग्रंथ