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जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा.
हाससे इतना प्रेम है और न तो इन बातोंकी अन्वेषण की ओर अपना लक्ष दोडाते है । फिर भी आप समाजके सुधारक बनकर विचार स्वतंत्रता में टांग फसाकर, प्राचीन और ऐतिहासिक बातोंके विरोधी बनकर स्वयं शंकाशील हो अन्य भद्रिक जनताको अपनी पार्टी में मीलाकर, हठधर्मी से अपनाही कपोलकल्पित मत अथवा पक्ष स्थापित करनेको उद्यत हो जाते है । क्या इससे समाज-सुधार हो गया अथवा हो जायगा ?
प्रिय वर ! विचार स्वतंत्रता केवल आज से ही नहीं अपितु अनादि काल से चली आई है। संसार में जितने नतमतांतर नजर आते हैं, यदि गहरी दृष्टि से विचार किया जाय तो सब विचार स्वतंत्रता नहीं, पर स्वच्छंदता से ही उत्पन्न हुवे प्रतीत होते हैं । हम विचार स्वतंत्रताके विरोधी नहिं हैं, किन्तु आजकल कितने ही महानुभाव स्वतंत्रता के बजाय स्वच्छंदी बन कर सुधार के बदले समाजकी अधोगति में धकेल रहे हैं। ऐसे सज्जनों को अपने संकुचित हृदय को विशाल बना कर, हमारे निम्नाङ्कित विचारों को ध्यान पूर्वक पढे व सुने और उसमें से जितना सत्य प्रतीत हो उतना ही " चिरमिवाम्बु मध्यात् " हंसवत् प्रहण करने को, हम सविनय प्रार्थना के साथ अनुरोध करते है कि- पूर्वाचार्यों के प्रति जो अ भाव - मेल है, उस को उन के उपकार नीर से धो कर, भक्ति भाव से स्वच्छ करदें और हृदयकालुष्य को हटा दें । यही हमारे समाज का और अपना सर्वोत्कृष्ट उद्धार और कल्याण मार्ग है ।