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जैन समाजकी वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर.
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(५) जैन जातियोंका एक ही धर्म होने पर भी जहां रोटी व्यवहार है वहां उनके साथ बेटीव्यवहार न होनेकी संकीर्णता का एक मात्र कारण जैनों का जाति बन्धन ही है ?
उपर्युक्त प्रश्नावलीका प्रस्फोट करनेके पूर्व उन विचारज्ञ महानुभावों को उप कालकी परिस्थिति पट पर विहार करने के लिये हम अवश्य अनुरोध करेंगे । समाजोद्धारक महान् पुरूषोंने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको द्रष्टिपथमें रखकर, समाजोन्नतिके लक्ष बिन्दु को पार करने के उद्देश्य मात्र से ही समयोचित फेरफार किया था । मनुष्य मात्र को प्रश्न करते समय उस काल की परिस्थितिका सम्यक अध्ययन, अभ्यास और विचार विमर्श करके ही कहना उचित है कि किस महान् उद्देशसे पूर्वाचार्योंने यह कार्य प्रारम्भ किया था । उस समय इस वास्तविक फेरफार की कितनी आवश्यक्ता थी, परिवर्तन का उस वख्त क्या स्वरूप था, कालके प्रभाव से उसकी असली सूरत में क्या २ विकृतियां हो गयी, आजकी जैन ज्ञातियोंकी यह दशा असली है या परिवर्तनका ढांचा है ? इन बातों के संपूर्ण अभ्यासित हुए सिवाय उपर्युक्त प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है । मेरी समजमें इतिहास इन उलझनोंकी गुत्थी सुला में ज्ञानदीपक है । किन्तु खेद का विषय है कि आज के इतिहास युगके जमाने में हमारी समाज पृथक् पथपर ही जा रही
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है । उनको अपनी जातिकी उत्पत्ति, उनके उद्देश और गौरवकी तरफ ख्याल करने तककी तनिक भी फुर्सत नहीं है । जैन जातियोंके अगुआ नेताओं को तथा होनहार नवयुवकों को न तो इति