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________________ सम्प्रति राजा. (१७९) ... जब जैन मुनियों के विहार करने के योग्य भनार्यदेश हो गया तो सम्प्रति नरेशने प्राचार्य सुहस्ति सूरि और मुनियों से विनती की कि अब आप उस क्षेत्र में पधार कर अनार्यदेश के लोगों में जैन धर्म का प्रचार कीजिये । आचार्यश्री की आज्ञासे जैन साधुओं के मुंड के झुंड अनार्यदेश में जाने लगे । मुनि लोगों की अभिलाषा कई दिनों से पूर्ण हुई । वे बड़े जोरों से आगे इस प्रकार बढ़े कि जिस प्रकार एक व्यापारी अपने लाभ के लिये उत्सुकतापूर्वक दुखों की परवाह न करता हुआ बढ़ता है । कुछ मुनि अनार्यदेश से लौटकर आते थे और प्राचार्यश्री को वहाँ की सब बातें सुनाया करते थे। आए हुए साधुओंने कहा कि हे प्रभो ! अनार्यदेश के लोग यहाँ के लोगों से भी अधिक श्रद्धा तथा भक्ति प्रकट करते हैं। इस प्रयत्न से इतनी सफलता मिली कि अर्बिस्तान, अफगानिस्तान, तुर्कीस्तान, ईरान, युनान, मिश्र, तिब्बत, चीन, ब्रह्मा, आसाम, लङ्का, आफ्रिका और अमेरिका तक के प्रदेशों में जैन धर्म का प्रचार हो गया । उस समय जगह जगह पर कई मन्दिर निर्माण कराए गये । उस समय तक म० ईसा व महमूद पेगम्बर का तो जन्म तक भी नहीं हुआ था। क्या आर्य और क्या अनार्य सब लोग मूर्ति का पूजन किया करते थे। कारण यह था कि वेदान्तियों में भी मूर्ति पूजा का विधान था, महात्मा बुद्ध की विशेष मूर्तियों सम्राट अशोक से स्थापित हुई। जैनी तो अनादि से मूर्ति पूजा करते आए हैं । अतएव सारा संसार मृत्ति
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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