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________________ कनकप्रभसूरि और उपकेशपुर. . (९१) के बाद कनकप्रभसूरि को तो उपकेशट्टन की तरफ विहार करने कि आज्ञा दी आपश्री, श्रीरत्नप्रभसूरि कि आशा को सिरोद्धार कर शिष्यसमुदाय के साथ उपकेशपट्टन कि तरफ विहार किया रास्त में व उपकेशपुर के आसपास के प्रदेश में अनेक जीवोकों प्रतिबोध दै उन महाजन संघ में मिलाते गये केइ मुनि उपकेशपुर में स्थित रहकर ज्ञानका प्रचार बढा रहे थे कुच्छ अरसो के बाद उपलदेव राजा का बनाया हुवा पार्श्वनाथ मन्दिर भी तैयार हो गया जिसकी प्रतिष्ठा आचार्य कनकप्रभसुरि के कर कमलों से करवाई गइ थी इत्यादि अनेक शुभ कार्य आप के उपदेश से हुवे और आचार्यश्री रत्नप्रभसरिजी आपने श्रमण संघ के साथ उसी प्रान्त मे व अन्य प्रान्तो मे विहार कर जैनशासन की बहुत उन्नति करी । रत्नप्रभसूरिने फिर अपने १४ वर्ष के जीवन मे हजारो लाखों नये जैन बनाये बाद कारण पा-पाके उस महाजन संघ से अनेक जातिये व गौत्र बन गये वह आज पर्यन्त भी मौजुद है आचार्यश्रीने उन जातियोंपर कितना उपकार किया कि एक कोमी धर्म बनाने से उनकी वंशपरम्परा भी जैन धर्म पालन किया और करते रहेंगे आपश्रीने अपने करकमलों से हजारो जैन मूर्तियोंकी प्रतिष्टा और २१ वार श्रीसिद्ध * ग्राज जो पहाडीपर देविके नामसे मन्दिर है वह राजा उपलदेवका बनाया पार्श्वनाथ का मन्दिर है और मन्दिरके बहार देविका स्थान था वह मिरजानेके समय वहां जैन वस्ती कम होनेसे लोगोने देविकी मूर्ति स्यात् जैन मन्दिर मे पधरादी हो तो ऐसा बन भी सक्ता है मन्दिरके पीच्छे किसी श्राविकाने महावीर स्थशालाके लिये एक उपाश्रय भी बनाया है एक देहरीक पीच्छे भितमें ग्राज भी पार्श्वनाथकी मूर्ति विराजमान है इत्यादि चिन्होसे भी पाया जाता है कि यह मूल मन्दिर पार्श्वनाथका था।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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