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________________ ( ९२) जन जाति महोदय प्र० तीसरा. गिरि का संघ तथा अन्य भी शासन सेवा और धर्म का उद्योत कीया श्रापश्रीने करीबन १० लक्ष नये जैन बनाये थे, पट्टावलिमें लिखा है कि देविने महाविदेह क्षेत्रमें श्री सीमंधर स्वामिसे निर्णय कीया था कि रत्नप्रभसूरिका नाम चौरासी चौवीसी मे रहेगा एक भवकर मोक्ष जावेगा इत्यादि....जैन कोम आचार्यश्री के उपकार कि पूर्ण ऋणी है आपश्रीके नाम मात्र से दुनियोंका भला होता है पर खेद इस बातका है कि आज कितनेक कृतघ्नी ऐसे भी ओसवाल है कि कुमति कदाग्रहमें पडके ऐसे महान् उपकारी गुरुवर्य के नाम तक को भूल बैठे है। उन सज्जनों को चाहिये कि वह अपने परम पूजनिये आचार्य रत्नप्रभसूरि प्रति अपना कृतज्ञपना प्रदर्शित करे। यह तो आप पहले ही पढ चुके है कि प्राचार्य श्री के पास वीरधवल नामके उपाध्याय अच्छे विद्वान थे एक समय राजग्रह न. गरमें किसी यक्षने बंडा भारी उपद्रव मचा रखा था जिसके जरिय जैनों को ही नहीं पर सब नागरिकों को बड़ा भारी दुखो हो रहाथा जिसके लिये बहुत उपचार किया पर उपद्रव शान्त नहीं हुव, इस पर श्रीसंघने श्रीरत्नप्रभसूरि कि तलास करवाइ तो आपका विहार मरूभूमिकी तरफ हो रहाथा तब राजगृहका संघ आचार्यश्रीके पास आ के वहांका सब हाल अर्जकर उधर पधारने की विनंति करी मूरिजी स्वयं तो अपनी सलेखना आदि केइ कारणो को लेके नहीं जा सके पर आप अपने शिष्य वीरधवल उपाध्यायको आज्ञा दी कि संघकी आने है वास्ते तुम वहां जावो और संघका संकटकों दूर करो तदानुसार उपाध्यायजी केइ मुनियों के साथ विहार कर
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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