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________________ राजगृह में यक्षोपद्रव की शान्ति. क्रमशः राजगृह पहूँच के रात्रिमे आपने स्मशानभूमि में ध्यान लगा दीया, आधी रात्रिके समय बडा भयंकर रूप धारण करके यक्ष पाया पहले तो उपाध्यायजीको बहुतसे उपसर्गका ढोंग बतलाया पर गुरुकृपा के साथ ही आप का तप तेज और चमत्कार ऐसा प्रभावशाली था कि यक्ष हाथ जोड खड़ा हो गया तत्पश्चात् उपाध्यायी ने उसको प्रबोधकारी उपदेश दिया फल यह हूवा की यक्ष उपदेश से शान्त हो उपाध्यायजीसे अर्ज करी कि इस नगरीके लोगोंने मेरी बहुत आशातना करी है उपाध्यायजीने उसकों और भी उपदेशद्वारा शान्त करदीया बाद उसने कहा कि में आपकी आज्ञा सिरोद्धार करता हुं परन्तु श्राप के साथ मेरा भी कुच्छ न कुच्छ नाम रहना चाहिये! उपाध्यायजीने स्वीकार कर लिया। बस । सब उपद्रव शान्त हो गया संघमें और नगरमे आनंद मंगल और जैनधर्मकी जयध्वनि होने लगी अनेक भव्य प्राणियोंने जैनधर्म स्वीकार किया पट्टावाल नं. ५ में लिखा है कि उपाध्यायजीने उस प्रान्तमें सवालक्ष नये जैन बनाये थे और भी अनेक उपकार करते हुवे उपाध्यायजीने कितने ही काल तो उसी प्रान्तमें विहार कर पवित्र तीर्थोकी यात्रा करी बाद वहांसे क्रमशः विहार कर सूरिजी महाराजकि सेवामे आये और वहांका सब हाल कह सुनाया, सूरिजीने उन यक्षका नाम रखनेके लिये वीरधवल उपाध्यायको अपने पद पर प्राचार्यपद स्थापन कर उसका नाम यक्षदेवसूरिरखदीया तत्पश्चात् आचार्य रत्नप्रभसूरिने अन्तिम सलेखना करते हुवे पवित्रतीर्थ सिद्धाचल पर पधार गये वहां एक मासका अनसन कर समाधिपूर्वक नमस्कार महामंत्र
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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