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( ९४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. का ध्यान करते हुवे नाशमान शरीर का त्यागकर आप वारहवें स्वर्गमें जाके विराजमान हो गये जिस समय आचार्य श्री सिद्धाचलपर अनसन कीया था उसरोजसे अन्तिम तक सेकडों साधु साध्वियों और करीबन ५००००० श्रावक श्राविका सिवाय विद्याधर और अनेक देवी देवता वहां उपस्थित थे आपश्रीका अग्निसंस्कार होने के बाद अस्थि और रक्षाकों ( भस्मी ) मनुष्योंने पवित्र समझ आपश्रीकी स्मृति के लिये सबलोगोंने भक्ति भावसे लेलीथी आपके संस्कार के स्थानपर श्री संघने एक बडा भारी विशाल स्थुभभी कराया जिस्मे श्री संघने लाखो द्रव्य खरच कियाथा पर कालके प्रभावसे इस समय वह स्थुभ दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि आपश्रीकी स्मृति के चिन्ह वहांपर जरुर मिलते है जैसे विमलवसीमे आपश्री के चरण पादुका आज भी मोजुद है इस श्रीरत्नप्रभसूरि रुप रत्न खोदे नेसे उस समय संघको महान् दुःख हुवाथा भविष्यका आधार आचार्य यक्षदेवसूरि पर रख पवित्र गिरिराजकी यात्रा कर सब लोग वहाँसे विदाहो आचार्य श्रीयक्षदेवसूरिके साथ यात्रा करते हुवे अपने अपने नगर गये और प्राचार्य यक्षदेवसूरि अपने पूर्वजोका बनावा हुया महाजन संघ को उपदेशरूपी अमृतधारा से पोषण करते हुवे और फिर भी नये जैन बना कर उसमे वृद्धि करने लगे,आपश्री चिरकाल शासनकी सेवा करे ऐसी उस जमाना के अन्दर जनताकी आन्तरिक भावनापर ही यह अधिकार यहां छोडदीया जाता है ॐ शान्ति । यह भगवान् पार्श्वनाथके छट्टे पाटपर प्राचार्यश्री रत्नप्रभसूरि आपना चौरासी वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वीरात् चौरासी वर्षे निर्वाण हुवे इति छटापाट्ट