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शास्त्रार्थ में जय.
(५ ) खीचोखीच भरजाने पर भी शास्त्रार्थ सुनने के प्यासे लोग बडेही शान्तचितसे श्रवणकर रहे थे. लोहीताचार्यने अपने धर्मकी प्राचीनता के बारेमें केइ युक्तियों व प्रमाण दिये जो कि सब कपोल कल्पित थे, और जैनधर्म के विषय में कहा कि जैनधर्म पार्श्वनाथजी से चला है ईश्वरको मानने में जैन इन्कार करते है। इत्यादि इसपर श्री हरिदत्ताचार्यने फरमाया कि जैनधर्म नूतन नहीं परन्तु वेदोंसे भी प्राचीन है वेदोंमे भी जैनाके प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव व नेमिनाथ और पार्श्वनाथ के नामोंका उल्लेख है ( देखो वेदोंकी श्रुतियों पहला प्रकरण में ) वेदान्तियोंने भी जैनतीर्थकरोंको नमस्कार किया है । राजा भरत-सागर दशरथ रामचंद्र श्रीकृष्ण और कौरव-पाण्डु यह सब महा पुरुष जैन धर्मोपासक ही थे । दूसरा जैन लोग ईश्वरको नहीं मानते यह कहना भी मिथ्या है। जैसे ईश्वरका उच्चपद और श्रेष्ठता जैनोंने मानी है वैसी किसीने भी नहीं मानी है। अन्य लोगों में कितनेक तो ईश्वर को जगतके कर्ता मान ईश्वरपर अज्ञानता व निर्दयताका कलंक लगाया है। कितनेकोंने सृष्टिको संहार और कितनेकोंने पुत्रीगमनादिके कलंक से व्यभिचारी भी बना दीया है इत्यादि । हाँ जैन ईश्वरको जगतके कर्ता हर्ता तो नहीं मानते है पर सर्वज्ञ शुद्धात्मा अनंतज्ञान दर्शनमय निरंजन निराकार निर्विकार ज्योतिस्वरूप परमब्रह्म सकल कर्म रहित मानते है। फिर ईश्वर को पुनः पुनः अवतार धारण करना भी जैन नहीं मानते हैं इत्यादि वादविवाद प्रश्नोत्तर होता रहा अन्तमें लोहिताचार्य को सद्ज्ञान प्राप्त होनेसे अपने १००० साधुओं के साथ