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________________ (६) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. आप आचार्य हरिदत्तसूरि के पास जैन दीक्षा धारण करनी, इस्के साथ सेंकडो हजारो लोग जो पहलेसे ही यज्ञकर्मसे त्रासित थे वह सूरिजीका सद्ज्ञानसे प्रतिबोध पाके जैनधर्मको स्वीकार कर लीया । क्रमशः लोहितादि मुनि आचार्य हरिदत्तरि के चरणकमलों में रहते हुवे जैन सिद्धान्तों के पारगामी हो गये तत्पश्चात लोहित मुनिको गणिपदसे विभूषित कर १००० मुनियोंको साथ दे दक्षिण की तरफ विहार करनेकी आज्ञा दी । कारण वहां भी पशुवधका बहुत प्रचार था। आपश्री अहिंसा परमो धर्मः का प्रचार करने में बडे ही विद्वान और समर्थ भी थे. आचार्य हरि. दत्तसूरि चिरकाल पृथ्वीमण्डल पर विहार कर अनेक भव्य आत्माओं का उद्धार करते हुवे धर्मका प्रचार शासनकी उन्नति और शिष्य समुदाय में वृद्धि करी । तत्पश्चात् आपश्री अपनी अन्तिम अवस्थाका समय नजदीक जान अपने पदपर आर्य समुद्रसूरिको स्थापन कर आप २१ दिनका अनशन पूर्वक वैभार गिर उपर समाधि पूर्वक इस नाशमान शरीरका त्याग कर स्वर्ग सिधारे । इति दूसरापाट्ट (३) आचार्य हरिदत्तसूरिके पाट पर प्राचार्य आर्यसमुद्रसूरि महा प्रभाविक विद्याओं और श्रुतज्ञानके समुद्र ही थे आपके शासन कालमें थोडा वहुत यज्ञवादियोंका प्रचार भी था हजारों लाखो निरापराधि पशुओंके कोमल कण्ठपर निर्दय दैत्य छूरा चलानेमें ही धर्म बतला रहे थे। और धर्म के नामसे मांस मदिरादि अनेक अत्याचार स्वयं करते थे और दुनियोंको भी छुट दे रखी थी
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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