SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुनियों का विहार. . (७। उसमें ही मोक्ष व स्वर्ग बतला रहे थे । इधर आचार्यश्री मुनि समुदाय विशाल संख्यामें पूर्व बंगाल उडीसा पंजाब मुल्तानादि जिस २ देशमें विहार करते थे उस २ देशमें अहिंसाका खुब प्रचार कर रहे थे । उधर लोहितगणि दक्षिण करणाटक तैलंग महाराष्ट्रियादि देशोंमें विहार कर अनेक राजा महाराजाओं कि राजसभामें उन पशु हिंसकों का पराजय कर जैनधर्मका झंडा फरका रहे थे आपके उपासक मुनिगण कि संख्या करीबन ६००० तक पहुंच गइ थी. दक्षिणमें अन्योऽन्य मत्तके प्राचार्यों को देख दक्षिण जैनसंघने लोहित गणिको इसपद के योग्य समज आचार्य आर्यसमुद्रसूरि की सम्मति मंगवाके अच्छा दिन शुभ मुहूर्त में लोहितगणि को आचार्य पद्विसे विभूषीत किये, आगे चल कर दक्षिण विहारी मुनियोंकी ' लोहित साखा ' और उत्तर भारतमें विहार करनेवाले मुनियोंकी 'निर्ग्रन्थ समुदाय' के नामसे ओलखाने लगी. दोनों श्रमण समुदायोंने हाथमें धर्मदंड लेकर उत्तरसे दक्षिणतक जैनधर्मका इस कदर प्रचार कर दिया कि वेदान्तियोंका सूर्य अस्ताचल पर चलेजानेसे नाममात्र के रह गये थे. ___आर्यसमुद्रसूरि के शिष्योंसे, 'विदेशी नामका ' एक महा प्रभाविक अतिशय ज्ञानी मुनि जो ५०० मुनियों के साथ विहार करते हुवे अवंति ( उज्जैन ) नगरी के उद्यानमें पधारे वहां का राजा जयसेन तथा महाराणी अनंगसुन्दरी और करीबन १० वर्षकी आयुष्यवाला बालपुत्र केशीकुमारादि नागरिक मुनिश्री को वन्दन करनेको आये. मुनिजीने संसार तारक दुःखनिवारक
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy