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________________ (6) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. और परम वैराग्यमय देशना दी उसको श्रवणकर परिषदा यथाशक्ति व्रत नियम लीये तत्पश्चात् मुनिको वन्दन कर परिषदा विसर्जन हुई पर राजपुत्र केशीकुमर पुनः पुनः मुनिश्रीके सन्मुख देखता वहांही बेठा रहा फीर प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु ! में जैसे जैसे आपके सामने देखता हुँ वैसे वैसे मेरेको अत्यन्त हर्ष होता है पूर्व एसा हर्ष मुझे किसी कार्य्य में भी न हुवा था इतना ही नहीं पर आप पर मेरा इतना धर्म्म प्रेम हो गया है कि जिस्कों में जबानसे कहनेको भी असमर्थ हूँ. मुनिश्रीने अपना दिव्यज्ञान द्वारा उस भाग्यशाली कुमर का पूर्व भव देखके कहा कि राजकुमर ! तुमने पूर्वभवमें इस जिनेन्द्र दीक्षा का पालन कीया है वास्ते तुमको मुनिवेष ( मेरे ) पर राग हो रहा है कुमरने कहा कि भगवान् ! क्या सच ही मेंने पूर्वभव में जैन दीक्षा का सेवन कीया है ? अगर एसा ही हो तो कृपा कर मेरा पूर्व जनम का हाल सुनाइये इसपर मुनिने कहा कि हे राजकुमार ! सुन, इसी भारतवर्ष में धनपुर नगरका पृथ्वीधर राजा था उसकी सौभाग्यदेविके सात पुत्रियों पर देवदत्त नामका कुमार हुवा. वह बाल्यावस्थामें ही गुणभूषणाचार्य के पास दीक्षा ले चिरकाल दीक्षापाल अन्तमें सामाधिपूर्वक कालकर पंचवा ब्रह्मस्वर्गमें देव पने उत्पन्न हुवा वहांसे चव कर तुं राजा का पुत्र केशीकुमार हुवा है यह हाल सुनके कुमरने उहापोह लगाया जिनसे जातिस्मरण ज्ञानोत्पन्न हुवा मुनिने कहा था वह आप प्रत्यक्ष ज्ञान के जरिये सब हाल बेहुब देखने लग गया बस फिर क्या था ! ज्ञानियोंके लिये
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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