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(४) जैन जाति महोदय प्र• तीसरा. फरका रहे थे। एक समय विहार करते हुवे प्राचार्य श्री अपने ५०० मुनियों के परिवार से स्वखिनगरी के उद्यान में पधारे वहां का राजा अदीनशत्रु व नागरिक बडे ही भक्तिपूर्वक आडम्बरसे सूरिजी को वन्दन करने को आये प्राचार्यश्रीने बडे ही उच्चस्वर और मधुरध्वनि से धर्मदेशना दी. श्रोताजनों पर धर्मकी अच्छी असर हुई । यथाशक्ति व्रत नियम किये तत्पश्चात् परिषदा विसजन हुई। जिस समय आचार्य हरिदत्तसूरि स्वस्ति नगरी के उद्यान में विराजमान थे उस समय परिव्राजक लोहिताचार्य भी अपने शिष्य समुदायके साथ स्वस्तिनगरीके बहार ठेरे हुवे थे। दोनोंके उपासकलोग आपसमें धर्मवाद करने लगे. यहांतक कि वह चर्चा राजा अदिनशत्र की राजसभा तक भी पहुंच गइ । पहले जमाना के राजाओं को इन वातों ( चर्चा ) का अच्छा शौख था. राजा जैनधर्मोपासक होनेपर भी किसी प्रकारका पक्षपात न करता हुवा न्यायपूर्वक एक सभा मुकरर कर ठीक टैमपर दोनों प्राचार्यों को
आमन्त्रण किया. इसपर अपने अपने शिष्य समुदाय के परिवारसे दोनों आचार्य सभामें उपस्थित हुवे । राजाने दोनों प्राचार्यों को बडे ही आदर सत्कार के साथ बासनपर विराजने की विनंति करी, आचार्य हरिदत्तसूरि के शिष्योंने भूमि प्रमार्जन कर एक कामलीका आसन बीछा दीया । राजाकी आज्ञा ले सूरिजी विराजमान हो गये इधर लोहित्ताचार्य भी मृगछाला बीछा के बैठ गये तदन्नतर राजाको मध्यस्थ तरीके मुकरर कर दोनों प्राचार्यों के श्रापुस में धर्मचर्चा होने लगी. विशेषता यह थी कि सभाका होल