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________________ दम्पति जीवन. - (१२१ ) करनेमें दासी के माफीक पतिदेवकी सेवा करे । भोजनके समय माता सदृश अप्रतिम स्नेह रक्खे शयन घरमें रंभाकी भांति हाव भाव माधूर्य सौदर्य से पतिका दीलको रंजन करे। धर्म कार्यमें सदैव सहायक बन उत्तेजन दें । और पृथ्वी की माफीक क्षमा गुनको धारण कर सुख और दुःख को सामान गीने इन षट्गुणों संयुक्त हैं। वह ही स्त्री कुलीन और धर्मपत्नी कहला सक्ती है पूर्व जमाने में बी शिक्षा पर अधिक लक्ष दिया जाता था और जन्म से ही उन बालाओं के कोमल हृदयमें ऐसे ही संस्कार डाल दिये जाते थे कि पूर्वोक्त गुणों से वह महिलाओं देवियो के रुपमे अपना जीवन और गृह को स्वर्ग बना देती थी. • जबसे स्त्री शिक्षण की तरफ हमारी समाज का दुर्लक्ष हुआ उनको अपठित रखने में समाज अपना गौरव समझने लगा और कितनेक अकल के दुश्मनों ने तो यहांतक निश्चय करलिया है कि एक घरमें दो कलम चलना बहुत बुरा है ईसका फल यह हुआ कि अपठित महिला समाज विनय, विवेक, चातुर्य, पतिसेवा, बालरक्षण और गृहकार्य से क्रमशः हाथ धो बेठी है अब कितने ही उपदेश दो पर जब उनके संस्कार ही ऐसे पड़ गए है कि वह उपदेश असर नहीं करता है जो सियों पतीके कार्यमें सलाह देती थी भाज वह अपने पति के कार्य में अनेक विघ्न डालना अपना कर्तव्य समझ लिया है गृहकार्य में जो दासी के माफिक काम करनेवाली मानी जाती थी आज वह शेठानियां बन विचारे पतिदेव को ही दास नहीं बनावें तो मेहरवानी समझी जाती है अगर
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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