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________________ जैन मंदिर मूर्तियों पर समाज की श्रद्धा. (११) (२१)जैन मंदिर मूर्तियों पर समाज की श्रद्धा. एक जमाना वह था कि हमारे चतुर्विध संघ की श्री जैन मन्दिर मूर्तियों पर इतनी अटल श्रद्धा थी कि जैन मंदिरों के लिये प्यारे प्राण निखरावल करनेमें भी वह लोग अपना गौरव समझते थे। कारण वे उन मन्दिरों के जरिए अपने प्रात्मकल्याण किया करते थे । मुनियों के लिये तो उन की न्यूनाधिक क्रियापर जनता की श्रद्धामें हानि वृद्धि भी हो सकती है पर मन्दिर मूर्तिपर तो जितनी श्रद्धाभाव निक्षेपवृति तीर्थंकरोंपर होती है उतनी ही उन की मूर्तियोंपर रहती है; कारण जैसे तीर्थकरदेव भव्यजीवों के कल्याणमें निमित्त कारण है वैसे ही उन की मूर्ती भी निमित्त कारण है। इस द्रढ श्रद्धा के कारण ही जैन समाज की सदैव निर्मल भावना रहती थी, सच्चे सुख का मार्ग एक धर्म को ही समझते थे। पापकर्म उन से दूर रहता था, अन्याय भनीति और अत्याचार उनसे दूर भागता था, परभवसे हमेशां डरते थे, यथावकाश मन्दिरजी में जाकर सेवा, पूजा, भक्ति, ध्यान, अपादिसे प्रात्मकल्याण किया करते थे । जबसे हमारी समाजमें मन्दिर मूर्ती मानने में मतभेद पड़ा तबसे एक वर्ग ( स्थानकवासी ) जिनके पूर्वनोंने सैंकड़ों मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्टा करवाई थी वही उनसे खिलाफ बन गए फिर भी जैसे २ उन को सझान मिलता गया वैसे २ वे पुनः मूर्तीपूजा के उपासक बनते गए, पर कितनेक लोग समझने पर भी प्राज तक लकीर के फकीर बन बैठे हैं तब दूसरी तरफ स्वतंत्र विचार
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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