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________________ ( १६२) जैन जाति महोदय प्रकरण छवा. और सुधारक के नामपर एक ऐसा वर्ग तैयार हुआ है कि वह मन्दिर मतियों को मोक्ष का कारण जरुर मानते हैं। सेवा पूजा भक्ती उपासना करते हैं और उन की द्रढ श्रद्धा भी हैं पर वे कहते हैं कि केवल प्राडम्बर और धामधूममें ही हजारों लाखों रूपैये लगा देना और दूसरी तरफ समाज के जरुरी भंग (कार्य) निर्बल पड़ते जा रहे हैं अगर उसपर लक्ष नहीं दिया जायगा तो भविष्यमें इन मन्दिर मूर्तियों की रक्षा ही कौन करेंगे ? इत्यादि। तब पुराणे विचारवाले उन को नास्तिक के नामसे सम्बोधन करते हैं पर मन्दिरों की निष्पत् मन्दिरों के पूजारी बढाने को सब स्वीकार करते हैं दूसरी एक यह भी बात है कि श्रद्धा रहना ज्ञान और संस्कार के आधिन है अाज हमारी समाजने इस बातों के लिए बिल्कुल मौनव्रत ले रक्खा है केवल कुल परम्परा श्रद्धा कहांतक टिक सक्ती है इसपर खूब गहरी द्रष्टीसे विचार करना चाहिये । आगे हम जैन मन्दिरों के पूजा की तरफ देखते हैं तो पूर्वजमाने में खुद जैनलोग ही पूजन करते थे, कारण जितनी भक्ती और पाशातना का ख्याल जैनों को रहता है उतना नौकरों को कभी नहीं रहता है कारण प्रावक तो प्रात्मकल्याण के लिए पूजा करते हैं तब नौकर अपनी उदरपूर्ति के लिए करते हैं। मेरे ख्यालसे तो जैन समाज की पतन दशा का मुख्य कारण जैन मन्दिरों की प्राशातना ही है। जैसे पूजा का हाल है वैसा ही देवद्रव्य का हाल है। इस विषयमें अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं कारण गांव गांवमें इस बात की त्रुटियों नजर आती है और इन को मिटाने का मनोरथ सब कोई किया करते हैं पर जब तक यह पाप न मिटे वहां तक जैन कौम की उन्नति
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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