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(५६ ) जन जाति महोदय प्र० तीसरा. लगे कि गुरु महाराज की कृपासे कुमरजी भाज नये जन्म भाये है सब लोगोंने नगरमें जा पोषाकें बदल के बड़े ही धामधूम और गाजावाजा के साथ जो सूरिजी को हजारो लाखों जीहाओं से प्राशीर्वाद देते हुवे अच्छे समारोह के साथ कुमरको नगरमे प्रवेश कराया राजाने अपने खजानावालो को हुकम दे दिया कि खजाना में बडिया से बडिया रत्नमाण माणेक लीलम पन्ना पीरोजिया लशणियादि बहुमूल्य जवाहिरात हो वह महात्माजी के चरणों में भेट करो ? तदानुसार राजा के खजाना से व मंत्री उहड श्रेष्टिने बहुत द्रव्य भेट किया।
" पट्टावलि नं. ५ में १८ थाल रत्नो से भर के सूरिजी महाराज के चरणों मे भेट किया लिखा है " . . ___" गुरुणा कथित मम न कार्ये " आचार्यश्रीजीने फरमाया कि मेने तो खुद ही वैताब्यगिरि का राज और राज खजाना त्याग के योग लिया है अब हम त्यागियोंको इस द्रव्यसे प्रयोजन नहीं है यह परिग्रह अनर्थ का मूल है अगर गृहस्थ लोग इसको धर्म कार्य व देशहित में लगावे तो पुन्योपार्जित हो सकता है नहीं तो दुर्गतिका ही कारण है इत्यादि सूरिजीने कहा कि आप अगर हमें खुश करना चाहें तो " भवद्भिः जिनधर्मो गृमतां " भाप सब लोग पवित्र जैनधर्मको श्रवण कर श्रद्धा पूर्वक स्वीकार करो जिससे आपका कल्याण हो इत्यादि। रिजी के निलामता के वचन सुनके रोष्ट और खजानची लोग आश्चर्य में डुब गये, विचारने लगे कि कहाँ तो अपने गुरु लोभानन्द और कहां इन महात्माकी निलाभता अरे