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________________ जैनधर्म की जयध्वनि. . (५) ज्वालियतः " भो अज्ञ लोंगो इस जीवीत राजकुमर को तुम लोग जलाने को स्मशान क्यों ले जा रहे हो इतना कह देवि तो अदृश हो गई ( पट्टावलि नं ३ में वह मुनि सूरिजी का शिष्य लिखा है ) लोगोंने यह सुन बडा ही हर्ष मनाया और राजा व मंत्री को खुशखबरदी, राजाने हुकम दीया कि उस मुनि को हमारे पास लाओ. लोगोंने बहुत कुच्छ खोज करी पर वह मुनि न मिला तब सब कि सन्मति से सब लोगों के साथ कुमर का झांपांन को ले सूरिजी के पास आये । ___“ श्रेष्ठि गुरु चरणे शिरं निवेश्य एवं कथयति भो दयालु ममदेवरूष्टा मप गृहीशून्यो भवति तेन कारणेन मम पुत्र भिक्षां देहि" राजा और मंत्री गुरूचरणों मे सिर झुका के दीनता के साथ कहने लगे कि हे दयाल ? करूणासागर आज मेरे पर दुर्दैवका कोप हुवा है, आज मेरा गृह शुन्य हो गया है आप महात्मा हो आप रेखमें मेख मारनेको समर्थ हो वास्ते में आज आपसे पुत्ररूपी भिक्षा की याचना करता हुं आप अनुग्रह करावे । इसपर ७० वरिधवल ने कहा "मासु जल मानीय गुरु चरणोपक्षाल्य तस्य छंटितं " फासुकजल से गुरु महाराज के चरणो का प्रक्षाल कर कुमर पर छांट दो " बस इतना कहने पर देरी ही क्या थी " गुरु चरणों का प्रक्षाल कर कुमर पर जल छांटते ही " सहसात्कारेण सञ्जोव भुवः" एकदम कुमर बेठा हुवा इधर उधर देखने लगा तो चोतरफ हर्षके वाजिंत्र बज रहे थे और जयध्वनि के साथ कहने
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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