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________________ (३०) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. चोरी, मैथुन, ममत्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, परनिंदा और निर्दयता को धारण कर उसमें चकचूर रहता है, शिकार खेलता है, मांस-मदिरादि अभक्ष्य वस्तुओं भक्षण करता है, कुदेव, कुगुरु और कुधर्मकी उपासना करता है, एवं दुर्जनोंकी संगतमें रह कर अनेकविध पापकोंसे अशुभ कर्मका संचय करता है वह भवान्तरमें घोरातिघोर नरक कुण्डमें जा चिरकाळ तक महान भयंकर दुःखोंका अनुभव कर वहांसे फिर पशु आदि दुःखमय चौराशी लाख योनीयोंमें अरट मालकी तरह परिभ्रमण करता है । इस लीये बुद्धिमानों को स्वयं विचार करना चाहिये कि मैंने अनेक भवभ्रमण करते हुए बडी दुर्लभनासे यह मनुष्य देह पाया है तो अब मुझे क्या करना चाहिये और मैं क्या कर रहा हूं ? क्या मैंने अपनी जीन्दगीमें कुच्छ भी सुकृत पुन्यकार्य किया है ? या खाना-पीना, मौजमजा, भोगविलास, हांसी ठठ्ठा, खेलकुद और तृणभक्षी निर्दोष प्राणीयोंके प्राण लुटनेमें सारी जीन्दगी व्यतित करी है ? मैं अपने साथ पूर्व भव से कितना पुन्य लेके आया हूं ? और इस भवमें कितना पुन्य संचय किया है या पाप संचय किया है ? जिन पाप कर्मों द्वारा धन, वैभव प्राप्त कर कुटुंब का पोषण कर रहा हूं परन्तु जब मैं यहांसे परभवकी और विदा हुंगा तब यह राजपाट, लक्ष्मी, पुत्र-कलत्र, पिता-माता, भाइ-बहिन आदि कुटुम्बवर्ग से कोई मेरा साथ देगा ? या परभवमें मेरे पर दुःख गुजरेंगे उस समय कोई मेरा सहायक होगा? या मैं अकेला ही दुःख सहन करुंगा ? इत्यादि विचार करना बहुत आवश्यक है । क्यों कि "बुद्धेः फलं
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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