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________________ यक्षवेव सरि का व्याख्यान ( ३१ ) तत्त्व विचारणं च " बुद्धि का फल वही है कि मनुष्य को तत्त्व का विचार करना चाहिये। सज्जनों ! यह भी याद रखना चाहिये कि यह सुअवसर यदि हाथसे चला गया तो पुनः पुनः प्रार्थना करने पर भी मिलना मुश्किल है। ___ महानुभावो! महाऋषियोंने जिस समय वर्णव्यवस्था की श्रृंखलना करी थी उस समय शौर्य-पुरुषार्थ द्वारा जनवाकी अर्थात् सर्व चराचर प्राणीयोंकी सेवा-रक्षा करने का खास भार क्षत्रीयोंपर रख छोड़ा था । कारण कि उनको संपूर्ण विश्वास था कि यह क्षत्रीयजाति दया का दरिया व उच्च विचारज्ञ और अपने पराक्रम द्वारा जनताकी रक्षा सेवा करने योग्य है परन्तु आज सत्संग और सदुपदेशके अभावसे उन वीरोंके हृदयनें भी पलटा खाया है-कुसंग मिथ्या उपदेशसे एसे खराब संस्कार पड गये कि वह अपने क्षत्रि धर्मको ही भूल बैठे है । जो लोग गरीब, अनाथ, और मूक प्राणीयोंके रक्षक कहलाते थे वेही लोग आज भक्षक बन गये हैं। जिंस शौर्य और पुरुषार्थद्वारा क्षत्रिय लोग संपूर्ण विश्वका रक्षण करते थे आज वही लोग निरपराधी मूक प्राणीयों का खुनसे नदीयें बहा रहे हैं इत्यादि । इसमें केवल क्षत्रियों का ही दोष नहीं है परन्तु विशेष दोष उनके उपदेशकों का है. कारण जिन महर्षिोंने संपूर्ण जगतकी शांतिके लीये जिन्होंके हाथमें जपमाला दी थी कि वह निःस्वार्थ भावसे पूजा-पाठ, जप-जाप, स्मरणद्वारा सारे संसारमें शांतिका साम्राज्य विस्तारेंगे परन्तु उनपर कुदरत का कोप इस कदर हुआ कि वह स्वार्थ के कीचडमें फँसकर जप
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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