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________________ (२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. माला के स्थान उन क्रूर हाथोंमें तीक्ष्ण छूरा धारण कर निर्दय दैत्यकी माफीक बिचारे मूक प्राणीयोंके कंठ पर छुरा चलाने में अपना कर्तव्य समझने लगे। इतना ही नहीं परन्तु उस भयंकर पापकी पुष्टि के लिये नया विधि-विधान बनाके उस पापसे छूटकारा पानेका मिथ्या प्रयत्न भी किया है। अधिक दुःख तो इस बात का है कि क्षत्रीय लोग उनके हाथके कठपुतले बन गये इस हालतमें वह पाखंडि लोग प्राणीयोंके रक्तसे यज्ञ वेदीको रंग कर अपने नीच स्वार्थोकी पूर्ति करते हुए धर्मके नामसे जनताको गहरी खाडमें धकेल दे इसमें आश्चर्य ही क्या है ? अगर वह धर्मके ठेकेदार धर्मके नामपर अपने खुदके शरीरमेंसे एक बुंद रक्तकी निकाल कर अपने इष्टदेवकी पूजामें चढाते तो उसे मालुम होता कि प्राणीयोंकी अघोर हिंसा करनेमें धर्म है या महान् पाप है ? हे राजन् ! शिकार खेलना, मांस भक्षण करना, मदिरादि का पान करना और व्यभिचार सेवना ये चारों अधर्म कार्य खास करके नरकमें लेजानेवाले हैं। यदि आप अपने आत्मा का इस भवमें और परभवमें कल्यान चाहते हो तो सबसे पहिले इनका त्याग करना चाहिये। कारण इन अधर्म कार्यों के होते हुए कोइ भी जीव धर्मका अधिकारी नहीं बन सकता हैं। आप नीतिल है आपमें विचार करनेकी शक्ति है. हृदय पर हाथ रख कर सोच सके हैं कि जहां तक लोकव्यवहार ही शुद्ध नहीं है वहां तक कोई भी मनुष्य धर्म समझने का अधिकारी कैसे हो सक्ता हैं क्यों कि धर्मकी भूमि शुद्धाचार है । पहले सदाचार रुपि भूमि
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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