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जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा.
का सबूत दे रहा है कि इन मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराने वाला आशाढ़ नामक एक श्रावक था । इसी प्रकार चारों ओर उस समय जैन धर्म का अपूर्व अभ्युदय हो रहा था ।
सूर्य के अस्त होने पर अंधकारका साम्राज्य हो ही जाता है इसी प्रकार सदुपदेश के अभाव में मिध्यात्व का अधिकार हो जाता है । इसी सिद्धांतानुसार नार्मनाथ स्वामी के पश्चात् भी ब्राह्मणों का थोड़ा बहुत जोर बढ़ा ही । अन्त में वाइसवें तीर्थंकर श्री नेमीनाथ का अवतार हुआ । आपके पिता का नाम समुद्र विजय था । श्री कृष्णचन्द्र वासुदेव जी के पुत्र थे 'अतएव नेमिनाथ जी के भाई थे । जिस वंश के अन्दर ऐसे ऐसे महात्माओं ने जन्म लिया है वह वंश यदि उन महात्माओं का अनुयायी हो तो इस में कोई आश्चर्य की बात नहीं । उस समय के जैन योद्धा समुद्रविजय, वासुदेव, श्रीकृष्णचन्द्र, बलभद्र, महावीर, कौरव, पाण्डव, और सांबप्रद्युम्न आदि ब्राह्मणों के हिंसामय कृत्यों का विरोध करते थे | यज्ञ की वेदी पर होने वाली हिंसा रोकी गई । सारे संसार में अहिंसा धर्म का प्रचार हुआ । क्या आर्य और क्या अनार्य सब मिलाकर सोलह हजार देशों में जैन धर्म की पताका फहराने लगी । तत् पश्चात् पार्श्वनाथ स्वामी का शासन प्रारम्भ हुआ। आप काशी नरेश अश्वसेन की रानी वामा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । श्राप की बुद्धि बाल्यावस्था ही में इतनी प्रखर थी कि आपने कमठ जैसे तापस की खूब खबर ली । उस तापस की धूनी में से जलते हुए नाग को निकाल कर नमस्कार
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