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नामिनाथखामि. खूब दण्ड भी दिया । यही कारण था कि ब्राह्मणोंने रावण को राक्षस बताया तथा उसे अपमानित करने के सैकडों उपाय किये। रावण के वंश को भी उन्होंने राक्षस वंश ठहरा दिया, रावण तो जैनी था । रावण जैन धर्म के नियमों का पालन करने में किसी भी प्रकारकी त्रुटि नहीं करता था । रावण ने अष्टापद पर जिनमन्दिर में नाटक किया था। उसने शांतिनाथ भगवान के मन्दिर में सहस्र विद्या सिद्ध की थी। वह नित्य जिन मन्दिर में आकर पूजा किया करता था। उस के समकालीन दशरथ, राम, लक्ष्मण, भरत, वाली, सुग्रीव, पवन और हनुमान आदि बड़े बड़े जैनी सम्राट् हुए हैं जिन्होंने यज्ञ की हिंसा को उठाने का खूब प्रयत्न किया था। लोगों को हिंसा से घृणा होने लगी। यज्ञ की निर्दयी
और निष्ठुर बाधिक लिलाएं दूर हुई । फिर एक बार हिंसा धर्म का सार्वभौमिक प्रचार हुआ।
इक्कीसवें तिर्थकर श्री नमिनाथ के शासन में जैन धर्म का खूब अभ्युदय हुश्शा । बड़े बड़े राजा और महाराजा जैन धर्म के उपासक थे । जिनालय जगह जगह पर मेदिनी को मण्डित कर रहे थे। गौड देश वासी एक आसाढ़ नामक सुश्रावकने एक देवता की सहायता से रावण निर्माणित भष्टापद तीर्थ की यात्रा करते हुए कई जिनालय बनवाए । मन्दिर बनवाने में उसने अपना सारा न्यायोपार्जित द्रव्य लगा दिया। उसने उन मन्दिरों में जिन जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराई थी उनमें से तीन मूर्तियाँ तो आज पर्यन्त विद्यमान हैं । उन मूर्तियों पर खुदा हुआ लेख इस वात