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(१४८) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. किन्तु अन्त में मिथ्यात्वियों की पूर्ण पराजय हुई और सोलहवें तिथंकर श्री शान्तिनाथ स्वामी के शासनकाल में पूर्ण शान्ति स्थापित हो गई। किसी भी प्रकार का दूषित वातावरण नहीं रहा । यह शांति चिरकाल तक रही। दिन ब दिन धर्म की उन्नति होती रही और दशा यहाँतक अच्छी हुई कि बीसवें तिर्थकर मुनिसुव्रत स्वामी के शासनकाल में अहिंसा धर्म की पताका सारे विश्व में फहराने लगी । इस झंडे के नीचे रह कर मानव समाज प्रचुर सुख अनुभव कर उसे पूर्ण तरह से भोगने लगा।
मुनिसुव्रत स्वामीने भडूंच में अश्वमेध यज्ञ बंध करा एक अश्व की रक्षा की थी अतः वह तीर्थ अश्वबोध नाम से कहलाने लगा तथा वह इसी नाम से आजतक विख्यात है। किन्तु यह उत्थान भी पराकाष्टा तक पहुँच कर फिर अवनत होने लगा। वीसवें और इक्कीसवें तिथंकर के शासन के अन्तःकाल में पुनः ब्राह्मणों का जोर बढ़ा । महाकाल की सहायता से पर्वत जैसे पापात्माओंने पशु बलि जैसे निष्ठुर यज्ञयागादि का प्रचुर प्रचार कर जनता को सामिषभोजी बनाया। मदिरा का भी प्रचार मांसभक्षण के साथ बढ़ा। मूक पशु यज्ञ की वेदियाँ पर मारे जाने लगे । पशुओं की हत्याओं से भूमि रक्त रंजित हो गई। शोणित का प्रवाह धरणी पर प्रवाहित होने लगा । रक्त की नदियाँ सब प्रान्तों में बहने लगी । नदियों के नाम भी रक्तानदी तथा चर्मानदी पड़ गये । इस समय जैन सन्नाट रोगणने इस हत्या को रोकने के लिये कई यज्ञों को रोका तथा यज्ञ गर्ताओं को