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धर्मनाथ स्वामी.
(१७) ब्राह्मणों की इस अधम प्रवृति के कारण जनता का असीम उपकार होना रुक गया तथा झूठा भ्रम अधिक जोरों से फैलने लगा । अपनी बात को परिपुष्ट करने के हेतु से उन्होंने कई नये आचार विचार सम्बन्धी कर्मकाण्डों का विधान भी किया । धर्म केवल एक संप्रदाय विशेष का रह गया । स्वार्थमय सूत्रों की रचना निरन्तर बढ़ती रही।
आखिर लोगों की धैर्यता जाती रही । अपने को भरमाया हुआ समझ कर लोगोंने शांति का साम्राज्य स्थापित करना चाहा । " जहाँ चाह है वहाँ राह है" इस लोकोक्ति के अनुसार तिर्थकर शीतलनाथ स्वामीने अंधश्रद्धा को दूर करने का खूब प्रयत्न किया और अन्त में पूरी सफलता प्राप्त भी की । जनता को पुनः जैनधर्म को अच्छी तरह से पालने का अवसर प्राप्त हुआ। ढोंगियों की पोल खुल गई तथा लोगों को सचा रस्ता फिर से मालूम हो गया । सब ओर सुख शांति का साम्राज्य स्थापित हो गया। किन्तु यह शांति चिरस्थाई नहीं रही । ज्योंही शीतलनाथ प्रभु का निर्वाण हुआ ब्राह्मणोंने पुनः उसी बुरे मार्ग का अनुसरण किया । ब्राह्मणों का आधिपत्य खूब बढ़ा । एवं श्रीयांसनाय, वासपूज्य, विमलनाथ और अनंतनाथ भगवान् के शासन काल में धर्म का उद्योत और अन्तरकाल में ब्राह्मणों का जोर बढ़ता रहा तत्पश्चात् भगवान धर्मनाथ स्वामी के शासन में फिर लोगोंने सुमार्ग का अनुसरण किया ! किन्तु फिर मिथ्यात्वने जोर पकड़ा . और स्वार्थियों की बन पड़ी । मोले लोग खूद भटकाए गये ।