________________
आ
जैन इतिहास ।
दि तिर्थकर श्री ऋषभदेव प्रभु के शासन से नव में तिर्थंकर श्री सुविधिनाथ प्रभु के शासन पर्यन्त तो विश्वधर्म जैन ही था । सारे प्राणी दयाधर्म की
शीतल छाया में अपनी आत्मा का उत्थान कर परम शांति प्राप्त करते थे । नव में तिर्थकर सुविधिनाथ स्वामी के शासन विच्छेद होने पर जैन ब्राह्मणों के मन में मलिनता का प्रादुर्भाव हुआ । स्वार्थ के वशीभूत हो कर उन ब्राह्मणोंने अपने ग्रंथों में परिवर्तन करना शुरू किया । जो जैन ब्राह्मणों के काम को सुचारु रूप से सम्पादन कराने के हेतु से भगवान् ऋषभदेव स्वामी के आदेशानुसार भरत महाराजने ४ आर्य वेदों का निर्माण तो किया था पर जैन ब्राह्मणोंने उन्हें असली रूप में नहीं रखा ।
उपरोक्त वेदों को बनाने का परम पुनीत उद्देश्य तो यह था कि जैन ब्राह्मणलोग समाज को आचार, व्यवहार तथा संस्कार से सुधार कर सत्कार पावें, पर ब्राह्मणोंने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये पूर्व विरचित वेदों में बहुतसा परिवर्तन कर दिया । इन शास्त्रोंद्वारा जैन ब्राह्मणोंने समाज का असीम उपकार किया था ।
:
अतः वे सब विश्वासपात्र बन गये थे । इस विश्वासपात्रता के कारण मिले हुए अधिकार का उन्होंने बहुत बुरा उपयोग किया ।