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(६) जैन जाति महोदय प्रकरण दूसरा. समुद्र में डुब रही है, जिस मानके अभाव अब लोग ममत्व माया
और तृष्णा के गुलाम बन रहे है, जिस ज्ञान के प्रभाव संसार एक क्लेश कदागृहका स्थान वन अपना अहित करने में नहीं ही चकते है, जिस ज्ञानके प्रभाव आत्मा निज गुणको भूल परस्वभाव में रमणता करता हुवा भवभ्रमण कर रहा है, उसी ज्ञानके लिये भगवान महावीर कठिनसे कठिन तपश्चर्या करी मरणान्त उपसर्ग सहन किया, और उत्तमोत्तम भावनासे चार घनघाति कोका समूल नष्ट कर-जम्बुकमामके पास रजुबालिका नदीकी तीरपर समकका क्षेत्र-शालिवृक्षके निचे छठ्ठतप गोदु आसन शुक्लध्यानमें वर्तते हुवे वैशाख शुक्ल दशमिके रोज चन्द्र हस्तोत्तरा नक्षत्रपर विजयनामक शुभ मुहूर्तमें सर्व लोकालोकके सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको जाननेवाला कैवल्यज्ञानकों उत्पन्न किया. उस समय संसारभर में आनन्द छा गया स्वर्गभी प्रोत्सहित हो उठा. सुगन्धी पुष्प व जलकी वृष्टि हुई. मय देवि देवता के इन्द्रोंने महा महोत्सव किया. भगवान महावीरने अपने दिव्य ज्ञानद्वारा धर्मदेशनादि पर उनका फल स्वरूपमें किसीने व्रत ग्रहन नहीं किया। तथापि जो जनतामें विश्रृंखलनाकी भट्टी धधक रही थी उसमें शान्तिका सञ्चार तो अवश्य होने लगा। भगवान् महावीर का समवसरण
भगवान महावीर प्रभु, वैशाख शुक्ल एकादशी को अपापा नगरीके महासेन उद्यानमें पधारे। इन्द्रके आदेशानुसार देवतोंने रजत, सुवर्ण और रत्नमय तीन गढ, बारह दरवाजे, सिंहासन अशोकवृक्ष