________________
कलिङ्ग देश.
( २५३ ) फहरा रही थी। यहां तक कि विक्रम की चौदहवीं शताब्दी पर्यन्त भी जैनधर्मावलम्बियाँ का इस प्रान्त में खासा जमघट था । अब से लगभग दो और तीन शताब्दियाँ पहले ' सारक नामक जाति के लोग इस प्रान्त में जैनधर्मोपासक थे । पर अन्त में वह दशा न रही । जैन धर्म के प्रचारकों एवं उपदेशकों का नितान्त अभाव था । इसी कारण धीरे धीरे लोग पुनीत जैनधर्म को त्याग कर अन्य मतावलम्बी होते रहे । बात यहां तक हुई कि वहाँ जैनधर्मोपासक न रहे । आज जो इस प्रान्त में थोड़े बहुत जैनी दिखाई देते हैं वे यहां के निवासी नहीं है । इन में से प्रायः सब मारवाड़ प्रान्त से व्यापारार्थ गये हुए हैं। ये जैनी अब बंग आदि प्रान्तों में व्यापार करते हैं। व्यापार में भी जैनियों का अब विशेष हाथ है ।
वहां के
2
३ ( कलिङ्ग प्रदेश ) महाराज अशोक के राज्यकाल के पहले क्या राजा और क्या प्रजा सब लोग जैनधर्मोपासक थे । कलिङ्गपति महामेघवाहन चक्रवर्ती महाराजा खारवेलने जैनधर्म की उन्नति करने के हित प्रबल प्रयत्न किया था । उससे इस घोर परिश्रम के परिणाम स्वरूप जैन धर्म का प्रचार इस प्रान्त के बाहिर भी खूब हुआ था तो वहाँ के वातावरण का तो क्या कहना ? इसके पश्चात् विक्रम की दसवीं शताब्दी तक तो इस प्रान्त के अन्तर्गत आई हुई कुमारगिरि की कन्दराओं में जैन श्रमण निवास करते थे । इस बात को प्रमाणित करनेवाले शुभचन्द्र और कुलचन्द्र मुनियों के शिलालेख पर्याप्त हैं । इसके आगे