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( २२४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. विक्रम की पद्रहवीं शताब्दी में इस प्रदेश में जैन राजा प्रतापरुद्र का शासन था । उस समय भी जैनधर्म का प्रचुरता से प्रचार हो रहा था। किन्तु सदा एक सी दशा प्रायः किसी की भी नहीं रहती। भव तो कलिङ्ग प्रदेश में केवल इने गिने जैन दृष्टिगोचर होते हैं जो वहाँ व्यापार के लिये रहते हैं। दिनों का फेर इसे कहते है कि जहाँ एक दिन निधर देखो उधर जैनी ही जैनी दिखाई देते थे वहां आज खोजने पर भी कठिनाई से दिखाई देते हैं । महा! काल तेरी भी विचित्र लीला है !
४ ( पञ्जाब प्रान्त ) इतिहास देखने से विदित होता है कि विक्रम पूर्व की तीसरी शताब्दी में जैनाचार्य देवगुप्तसूरीजी ने पञ्जाब में पधार कर वहाँ इस धर्म की नींव दृढ की थी और उनके पट्टधर आचार्यश्री सिद्धसूरीजीने इस परम पवित्र लोक हितकारी उपकारी जैनधर्म का जी-जान से प्रचार किया था। भापकी उच्च अभिलाषा थी कि पञ्जाब जैसे प्रान्त में जो प्रचार का उत्तम क्षेत्र है खूब जोरों से प्रचार कार्य किया जाय । इस कार्य के सम्पादन करने में सूरीजीने प्रगाढ़ परिश्रम किया। जैन धर्म पश्चाव में सर्वोच्च पद प्राप्त कर गया । ऐसा कौनसा कार्य है जो प्रयत्न और परिश्रम करने से सिद्ध नहीं होता ? वास्तव में सूरीजी को इस प्रचार कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई । वंशावलियों को देखने से मालूम हुआ कि विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में पंजाब से एक बड़ा भारी संघ सिद्धगिरि कि यात्रा के लिये प्राया था। इस विशाल आयोजन से विदित होता है कि उस