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________________ आचार्यश्री सिद्धसरि, मापश्रीने अन्य निर्माण करने में भी कमी नहीं रक्खी थी इत्यादि सद्कायों से स्वपरात्मा का कल्याण कर अपना नाम इतिहास पट्टपर अमर बना दिया था. . पाठकवर्ग ! आप सज्जन इस बात को तो भली भान्ति समझ गए होंगे कि उस जमाने के जैनाचार्योने जैन धर्म के प्रचार के लिए किस २ विकटभूमि अर्थात् देश विदेशमें विहार किया, कैसे २ संकट और परिश्रम उठाए, वादि प्रतिवादियों के साथ किस कदर शास्त्रार्थ कर : अहिंसा परमो धर्मः " का विजय डंका बजाया; जैन धर्म को विश्वव्यापी बनाने की उन महापु. रुषों के हृदय में किस कदर विजली चमक उठी थी, कारण उस समयं मरूस्थल, कच्छ सिन्ध सौराष्ट्रादि प्रान्तों में व्यभिचारी वाम मार्गियों का या यज्ञवादियों का साम्राज्य वरत रहा था। पंजाब प्रान्त में असंख्य निरापराधी भुक प्राणियों की रौद्र हिंसामय यज्ञादि का प्रचार करने में वेदान्ती लोग अपना प्राबल्य जमा रहे थे, अंग बंग मगध वगेरह प्रान्तों में बौध लोग अपने धर्म का प्रचार नदी के पूर की भान्ति बढा रहे थे, अगर उस विकट समयमें जैनाचार्य एक ही प्रान्त में रह कर अपने उपासकों को ही मंगलिक सुनाया करते तो उन के लिए वह समय निकट ही था कि संसारभरमें जैन धर्म का नाम निशान भी रहना मुश्किल हो जाता; पर जिन की नसो में जैन धर्म का खून बहता हो वे ऐसी दशा को गुप चुप बैठकर कैसे देख सके ? हरगिज नहीं, कारण अधर्म को हटाने के लिए पाखण्डियों का पराजय करने के लिए उन महात्मानों
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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