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जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर. (१५) विक्रम पूर्व दूसरी शताब्दी में महामेघवाहन चक्रवर्ति राजा खारवेश हुआ, जिसके अस्तित्व समयका एक परमोपयोगी श्रद्धापात्र शिलालेख उडीसाकी हस्ती गुफासे, पाश्चिमात्य विद्वानोंके परिश्रमसे उपलब्ध हुआ है, जिसमें “वेनराजा" का उल्लेख " वधमान-सेसयो वेनाभि विजयो तेतिये" ( वर्धमान शैशवो वेनाभि विजय स्तृतोये ) मीलता है । उसी वेन राजा को वर्ण व जाति न मानने से " पद्मपुराण" में जैन बतलाया है । शायद राजा वेनने भगवान महावीर के उपदेशानुसार वर्ण व जाति का बहिष्कार किया हो, और यह बात ब्राह्मणों को असह्य लगने के कारण, जैसे कि मौर्य-चन्द्रगुप्त आदि राजा को जैन धर्म पालने के कारण हलके वर्णका ब्राह्मणोंने चित्रित कर दीया है, वैसे ही उसको भी जैन लिख दिया हो तो वस्तुतः यह बात सम्भव हो सक्ती है। राजा वेन भगवान् महावीरस्वामी के समकालीन हुआ है यह बात इतिहास सिद्ध है। इस लेख से हमारे प्रस्तुत विषय पर अच्छा प्रकाश पडता है, कि सब से प्रथग ही श्री महावीरदेवने वर्ण व जाति के बन्धनों को तोडा, और राजा वेन उन अग्रसरों में से एक था-अर्थात् प्रथम प्रधान कार्य कर्ता था । यह सुधार घटना का प्रादुर्भाव प्रायः कर के पूर्व बंगाल-खास करके मगध देश में हुआ-बाद ही में चारों
ओर फैल गया । पर मरूभूमि जैसे वाममार्गिओं के साम्राज्य में यह हवा तो ३०-४० वर्षों के बाद ही पहुंची और उस को पहुंचाने वाले पूर्वोक्ताचार्य स्वयंप्रभसूरि और रत्नप्रभसूरि ही थे,