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________________ ( १ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. कि जिन्होंने वाममागी जैसे व्यभिचारी मत से और पर्ण जाति आदि बन्धनों से जर्जरित हुये शक्ति तंतुओं को एकत्रित कर के " महाजन संघ" की स्थापना करते हुये जगदोपकार किया । लंबी चौडी बातें हांकनेवालों को यह भी ख्याल में रखना चाहिये कि उस समय उन व्यभिचारियों के वज्र समान किल्ला तोडना कोई साधारण कार्य न था। उन समर्थ प्राचार्योंने अपने अपूर्व आत्मबल से अर्थात् मथाग परिश्रम करके इस विषम कार्य में अमूल्य सफलता प्राप्त की, और नर्कके मार्ग जाते हुये प्राणीयों को उपदेश द्वारा खींच कर, स्वर्ग मोक्ष के सीधे पथपर ले आये. और अनेक अधर्म-असित आत्माओं का कालुष्यको सुन्दर सद्धर्मोपदेश से धोकर उद्धार किया । आपकी तरफ से इस के ही परितोषिक स्वरुप उपरोक्त प्रभावली में झलकता हुअा सन्मान (!) मील रहा है। महान पुरुषों के उपकारों को भूल जाना भी पापकार्य माना गया है, तो फिर उन के उपर दोषारोपण करने से तो क्या सिद्धि प्राप्त होगी, इस का तो पाठक गण ही स्वयं विचार करें। प्रिय पाठकगण ! जरा हृदयक्षेत्र को विशाल करके उपर्युक्त घटना को सद्ज्ञान द्वारा सोचिये, कि उस परिस्थिति में यह फेरफार समयोचित था या नहीं ? जनता किस कदर अपनी शक्तियों को अनेक विभागों में विभक्त करके अत्याचारियों के धधकते हुये अग्निकुंड में अपनी बलि चढा रही थी ब्राह्मणों के दुराचारों से भारतवर्ष का वह अमोघ शौर्य किस तरह निस्तेज हो रहा था । ब्रह्मदेवोंने अपना राक्षसी अभिमान और बिलासता
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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