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जैन समाज की वर्तमान दशापर प्रश्नोत्तर.
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को पोषण करने के लिये तीनों वर्णों को अपने पैर तले कैसे और किस हद तक दबा रक्खे थे। इन बातों का आप जरा अपने ज्ञान चक्षुओं द्वारा अवलोकन किजिये ? हृदयतुला पर यथेष्ट और यथार्थ तोलिये ? कि किस परिश्रम द्वारा जैनाचायोंने उन पृथक् २ विभागों में छिन्न भिन्न विखरे हुये शक्ति तंतुओं को एकत्रित करके "महाजन संघ” की स्थापना की होगी ? क्या उनको स्वप्न में भी यह कल्पना होगी कि जिस जनता को वर्ण व जातिरूपी का - रामह से आज हम मुक्त करके दिव्य शक्तिमय संघ में सम्मिलित कर रहे हैं वह संघ ही कालान्तर में स्वार्थवशता के वशीभूत हो कर जाति, उपजाति रूप बंधनों से वन्दीभूत हो जायगा ? अपनी २ शक्तियों के टुकडे २ कर देगा ? उत्तम भावनाओं से संकलित किया हुआ यह संघ कालान्तर में अपनी हृदय विशालता को संकुचित कर के एक ही धर्मोपासक एकात्म भात्री संघ रोटी बेटी व्यवहार तोड कर अपने विशाल क्षेत्र को अस्तव्यस्त कर देंगे ? ऐसे भयंकर दूषित विचारोंने क्या पूर्वाचार्यों के सरल उपकारी हृदय को कभी स्पर्श भी किया होगा ? अपि तु कभी भी नहीं । उस काल के इतिहास से अब आपको यह तो अच्छी तरह विदित हो गया होगा, कि वर्ण तथा जाति के अनुचित बंधनो को तोडने की प्रथा का प्रारम्भ पूर्व प्रदेशां में भगवान् महावीर और मरूभूमि आदि स्थलों में आचार्य श्री स्वयंप्रभसूर और रत्नप्रभसूरिने किया था | उन्होंने इस कार्य में सम्पूर्ण सफलता प्राप्त कर जगदूद्धार किया था । आज कल के जैन संसारने उन्ही