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________________ कन्या विक्रयरूपी कर व्यापार । 'कन्या विक्रय' ऐसा अद्धम शब्द जैन समाजने अपने कानों तक भी नहीं सुना था कि कन्या विक्रय किस बलायका नाम है, तो समाजमें कन्या विक्रय को स्थान मिलना तो सर्वथा असंभव है । पहिंसा प्रिय जैन समाज मैं कन्या विक्रय तो दूर रहा पर कन्या के वरके वहां का पानी पीने में भी कन्या के मातापिता महान् पाप समझते थें अगर कोई अद्धम नर ऐसा कर भी लेता तो उसकी इज्जत बहुत कम दर्जे समझी जाती थी। न्याति जाति सम्बन्धी कोई भी उच्च कार्य उनके वहां नहीं होता था और इज्जतदार भादमी उनके साथ संबन्ध करनेमें भी हिचकते थे, पर जबसे हमारे वृद्ध धनाढ्यो के बुझे खंखरों के हृदयमें विषयानिने भयंकर रूप धारण किया उन्होंने कोमलवयकी बालाओं के मात पिता का दुष्ट मन को अपनी लक्ष्मी से भाकर्षित किया, तबसे समाजमें कन्या विक्रय रूप दुष्ट व्यापारने जन्म लिया । जैसे बाल अनमेल और वृद्ध विवाह की शरमात का काला तिलक अपनी निष्ठुर कपालपर लगाने का यस प्राप्त किया वैसे ही कन्या विक्रयरूप अद्धम व्यापार का सोभाग्य भी हमारे धनाढ्यो का ही भामारी है।
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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