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वृद्धविवाह.
- (७९) प्रसन्नता मानन्द और सुख मिले उसका तो मुझे यह लक्ष्मी मंदिरमें भयंकर दुष्काल ही मालुम होता है।
प्रेमका पन्थ मृणाल के तार से भी कौमल है वहां सूई जितना भी छिद्र नहीं । जहां प्रेमकी खामी है वैसे लग्न को दु. नियां भले ही विवाह मानले किन्तु यह शरीर लग्न है। उसमें हृदय लान प्रेम लग्न की बू तक भी नहीं है, जहां हृदय लग्न की खामी है वहां पर कैसे २ भवाड़े अनाचार होते हैं. यह समाजसे छिपा नहीं है। अगर समाज नेता अपनी समाज को उन्नत बनाना चाहते है तो सबसे पहिले इस वृद्ध विवाह रूपी कुप्रथा को समाज से बिल्कुल मिटा दें और इसके मिटाने का एक ही कारण है कि वह ऐसे अनुचित कार्यमें शामिल न रहे । और जिन अद्धम नरों के वहाँ ऐसा अयोग्य कार्य होता हो वहां न्याति जाति के पंच तो क्या परएक बच्चा भी जाकरके खड़ा न रहे इत्यादि पर माल मिष्टान उड़ानेवाले क्षुद्र पंचो को यह बात मंजूर कैसे होगी । अरे ! स्वार्थिय पंचो एक दो दिनके पेट के लिए तुम निर्दोष बाला को जन्म कैदमें क्यों डालते हो दिन व दिन विधवाओं कि संख्या बढाके पापाचारसे देश कि घात क्यों करवाते है । याद रखिए अब वह जमाना बहुत निकट आ रहा है कि वे लड़कियों अब तुमारी शर्म नहीं रखेगी वे खुले मैदानमें कह देंगी कि यह बुढा वर मेरे बापकी बराबरी का हमको नहीं चाहिए । मैं हरगिज इसके पीछे नहीं जाऊंगी। फिर तुमारा और बुट्टेवर का क्या मान रहेगा इससे तो बहतर है कि पहिले से ही समाज चेत जावे और इस कुरुढी का मुंह काला करके योग बर को कन्या दे उनके अन्तःकरण का आशीर्वाद सम्पादन करें।