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________________ कन्याविक्रय जैसे कन्याविक्रय का बजार तेज हो रहा है, वैसे ही पर विक्रय का भी चेपी रोग हमारी समाजमें कम नहीं है। वर पिता कन्या की उम्मर रूप गुणादि की भोर लक्ष नहीं देते हैं, पर उनको तो अपनी इज्जत बढाने के लिए डोरे के रूपयों की ओर ध्यान लगा रहता है; कन्या चाहेकाणी, कुबडी, कुरूपी, क्लेशप्रिय, अशिक्षीत, और छोटी बडी हो उनकी तनिक भी पर्वाह नहीं है; पर रूपयों की गठडी खुलाना उन्होंने अपना ध्येय बना रक्खा है फिर लड़के की सब आयू क्लेशमें व्यतित हो, दम्पति सुखसे हाथ धो बैठे, लज्जा व शर्म को छोड घर २ झांकता फिरे, वेश्यादि रंडियों के चरणों में अपना अमूल्य वीर्य और मुश्किलसे कमाया द्रव्य अर्पण कर दे उस की परवाह नहीं ? हाय स्वार्थ ! हाय अज्ञान !! हाय अफसोस ! ! ! जो दूरदर्शी महाजन कहलाते थे वह आज कितने अदूरदर्शी बन अपना सर्वस्व किस हालतमें खो देने को तैयार हुए हैं। एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक अंग्रेज विद्वान चार्ल्स डारविनने कहा है " Man sees with serupulous care the charecter and pedigree of his horse, cattle, and dogs, before be matches them but when he comes to his own marraige be rarely or never takes such care.” ___सच भी है कि मनुष्य अपने गाय, बैल, घोडों और कुत्तों का जोडा लगाने के समय तो उनके कद, नसल और बल मादि गुणों के लिए बड़ी सावधानीसे विचारपूर्वक काम लेते हैं किन्तु
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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