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जैन जाति महोदय प्रकरण छठ्ठा.
अपने पुत्रों के लिए विवाह का समय उपस्थित होता है तब वे ' स्वार्थ के वशीभूत हो सब विचार भूल जाते हैं। क्या यह कम शोचनीय दशा है ? शेठजी को हजार दो हजार रूपये डोरे के मिल जाते हैं तो बे फूले नहीं समाते है परन्तु यह खयाल नहीं है कि इस कुमेल विवाह का क्या फल होगा ? इससे हमारी इज्जत बढेगी या सतावीस पीढीयोंमें एकत्र की हुई इज्जत एक ही दिन में नष्ट हो जायगी ? इतना भी विचार नहीं करना क्या यह मनुष्यत्वं है ? कन्याविक्रय करना यह एक विगर इज्जत का महान् पाप है अलबत, वरकन्या का सुयोग्य सगपन हो वहां इज्जत का साधारण डोरा लेना देना एक महत्व की बात है पर डोरे के लोभ से या बराबरी का घर देखकर कुजोडा कर देना इसमें जितना कन्याविक्रय का पाप है उतना ही वरविक्रय का पाप समझा जाता है ।
साधारण स्थितीवाले को तो इस वरविक्रय में भी मरण है, और वह अपने हाथों से मरते हैं कारण साधारण घर के सुयोग्य वर को कन्या न देकर, धनाढ्यों को बडे २ डोरे देकर अपनी इज्जत बढाने की कोशीष करते हैं। फल स्वरूप में उन धनाढ्यों की मर्जी के मुताबिक हाजरी भरने पर उनकी इच्छा तृप्त करने को विशेष द्रव्य खर्चने पर भी उन साधारण आदमियों की इज्जत रखना तो उन भाग्यविधाता धनवानों के हाथ में ही है। अगर ऐसी दो-तीन कन्याएं हो तो उस साधारण को तो नया जन्म लेना पडे । इत्यादि
इन कन्या विक्रय-वर विक्रयरूप कुप्रथाओंने हमारे समाकी क्या दुर्दशा करदी है और न जाने भविष्य में क्या करेगा ? क्या