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जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. जो बड़े घरों की विधवा अपना द्रव्य अनेक कुरास्ते लगा रही है । तद्यपि अभीतक हमारी समाज में ऐसी दुशिलीनियों बहुत कम है किन्तु एक भी ऐसी दुःशीलनी होनेपर हमारी समाज इस कलङ्कसे सर्वथा बच नहीं सक्ती । अगर इस कार्य को हमारी सध्वीवर्ग हिम्मतपूर्वक हाथमें लें तो एक विधवा समाज को तो क्या पर सम्पूर्ण स्त्री समाज को वे आशानीसे सुधार सक्ती हैं, परन्तु दुःख का विषय है कि उन को भी आपसी लेश से, इतना अवकाश कहां है कि वे इस पवित्र कार्यमें हाथ डालें ! इस वख्त तो यह कन्या. विक्रयरूपी चेपी रोग समाजमें इतना तो फैल गया है कि करण, करावण, और अनुमोदनसे शायद ही कोई श्रावक, श्राविका. साधु और साध्वी बची हो । यद्यपि साधु साध्वी और कितनेक धर्मप्रिय श्रावक ( सद्गृहस्थ ) इस पापाचार को स्पर्श नहीं करते हैं, पर वे कन्याविक्रयवालों के वहां का भोजन नहीं छोड़ते हैं...
इस लिये उनको भी इस पापके भागी बनना पडते है, अगर चालीस पचास हजार रूपये लेनेवालेने स्वामिवात्सल्य किया हो तो चतुर्विध श्री संघ उनको धन्यवाद देकर मिष्टान से उदर को तृप्त बना लेते हैं, इतना ही नहीं पर दो चार हजार रूपये खर्चकर छोटासा संघ निकाला हो तो चतुर्विध संघ उसे संघपति के नामसे भूषित कर लम्बी २ पत्रिकाएं छपाकर मुल्क मशहूर कर दें और उपधान करवा दिया हो तो बडे महोत्सवपूर्वक उनके गलेमें माला तक भी अर्पण कर दी जाती है। क्या कोई व्यक्ति यह कहने का साहस कर सका है कि चतुर्विध संघसे मुख्यतया इस वनपाप के करण, करावण और अनुमोदनसे कोई बचा होगा ।