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( ७० ) जैन जाति महोदय प्रक ण पाचवा. देशमें पदार्पण कर दिया । सिद्धपुत्राचार्य तो पहिलेसेही 'अहिंसा धर्म " का कट्टर विरोधी था फिर आचर्यश्रीका पधारना तो उससे सहन हो ही कैसे सके ?
इधर तो आचार्य देवगुप्तसूरि हिंसा धर्मका प्रचार कर रहे हैं और उधर सिद्ध पुत्राचार्य यज्ञादि में असंख्य प्राणियों के बलीदानसे ही स्वर्ग मोक्ष और संसार की शान्ति बतला रहा था। क्रमशः स्वस्तीक नगरी में दोनों प्राचार्यों का आगमन हुआ और शास्त्रार्थ का आन्दोलन होने लगा | बात भी ठीक है कि दोनों आचार्यों के दिल में अपने २ धर्मका गौरव-घमण्ड था अतःएव शास्त्रार्थ होना जरूरी बात थी स्वस्तीक नगरी के महाराजा धर्ममेनकी राजसभा में शास्त्रार्थ होना निश्चय हुआ।
ठीक नियत समयपर दोनों आचार्य अपने शिष्य मण्डल के साथ राजसभा में प्रा पहुंचे। सत्यासत्य के निर्णय पिपासु लोगों से राजसभा खचाखच भरा गई । अच्छे २ विद्वानों को मध्यस्थ स्वीकारे जाने के पश्चात् दोनों प्राचार्यों के संवाद होना प्रारंभ हमा। सिद्ध पुत्राचार्यने अपना मंगलाचरण में ही यज्ञ करना वेद सम्मत बतलाते हुए अनेक युक्तियोंसे अपने मंतव्य को सिद्ध किया तब आचार्य देवगुप्तसूरिने फरमाया कि " अहिंसा परमो धर्मः " एक विश्वका धर्म है पर हठ कदाग्रह के वशीभूत हो महाकाल की सहायतासे पर्वत जैसे पापास्मानोंने यज्ञ जैसे निष्ठुर कर्म को प्रचलित कर दुनियामें अधर्म की नींव डाली जिसके अन्दर सम्मति देनेवाला वसुराजाने अधोगतिमें निवास किया । बाद यज्ञबालक्य