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________________ अचार्यश्री देवगुप्तसूरि. ( ६९ ) थे आप की सहनशीलता की बराबरी, पृथ्वी भी नहीं कर सक्ती समुद्र इतना गंभीर होनेपर भी कभी कभी क्षोभ को प्राप्त हो जाता है पर आपश्री की गंभिर्यता एक अलौकिक ही थी । बड़े २ राजा महाराजा और विद्याधर ही नहीं पर आप श्रीमान् अनेक देवी देवताओंसे भी परिपूजित थे। जैसे आप शास्त्रार्थ में निपूण थे वैसे जैन धर्म का प्रचार करने में अद्वितीय वीर थे आप दूसरों की सहायता की उपेक्षा कर स्वयं आत्मबल पर अधिक विश्वास रखते थे जिस जिस समय आप अपने पूर्वजों के परोपकार पर विचार करते थे उस समय आप का दिल में यह ही भावना पैदा हुआ करती थी कि किसी न किसी प्रदेश में जाकर जैन धर्म का प्रचार किया जाय तब ही अपने जीवन की स्वार्थता समझी जाय. क्यों नहीं ? वीरों की सन्तान वीर ही हुआ करती है । जिस समय आचार्य देव सिंध प्रान्त में विहार कर रहेथे उस समय का जिक्र है कि कुणाल ( पंजाब ) देश से एक कर्माशाह नामका जैन व्यापारी सूरिजी महाराजके दर्शनार्थ आया और उसने आचार्यश्रीसे अर्ज करी कि भगवान् ! आजकल सिद्धपुत्र नामका एक धर्म प्रचारक पंजाब देशमें यज्ञादि धर्मका खूब जोर सोरसे प्रचार कर रहा है और वह थोड़े ही दिनों में यहां भी भानेवाला है आचार्यश्रीने फरमाया कि अगर ऐसा ही है तो अपने को भी उनका स्वागत करने को तैयार ही नहीं पर उनके सामने जाना अच्छा है। बस, अनेक विद्वान मुनिगण के साथ कम्मर कस तैयार हो गए । विहार करते हुए थोड़े ही दिनों में आपने पंजाब
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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