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भाचार्यश्री देवगुप्तरि. . (१) जैसे ने मातापिता के द्वेष के मारे नरमेध, अश्वमेध, गजमेधादि अनेक प्रकार के यज्ञ चला दिए और उनके अन्दर "असंख्य निरा. पराधि प्राणियों के खूनसे नदियों बहानेमें ही" स्वर्ग-मोक्ष माना; मांस मदिराभक्षी लोगोंने ऐसे अधर्म को अपनाया, अगर ऐसी घोर रौद्र हिंसा से ही जीवों को स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति हो जायगी तो फिर। नरक में कौन जावेगा? महानुभावो! जैसे अपना प्राण अपने को प्यारा है वैसे सब जीव अपने प्राणों को प्यारा समझते हैं। अगर स्वर्ग मोक्ष बतलानेबाले आप खुद यज्ञ में बली द्वारा स्वर्ग को प्राप्त करे तो उनको खबर पड़ जाय कि यज्ञ जैसा जगत् में कोई भी अधर्म नहीं है । इत्यादि शास्त्र और युक्तिद्वारा “ अहिंसा परमो धर्मः" का जनता पर अच्छा प्रभाव डाला; और जैन तत्त्वज्ञान की ऐसी सुन्दर व्याख्या करी कि जनताका दील जैनधर्म की और भूक गया कारण यज्ञ की घोर हिंसासे पहिले से ही जनता घृणित हो रही थी फिर एक धर्माचार्य नाम धरानेवाले हिंसा की पुष्टी करे उसको दुनिया कहां तक सहन कर सके ! ___सत्य को स्वीकार करना यह एक सच्चा धर्म है राजा और प्रजा की मनोभावना अहिंसा भगवती के चरणों में सहज ही में झुक गई थी इतना ही नहीं पर शास्त्रार्थ के अन्तमे सिद्ध पुत्राचार्य भी अहिंसा भगवती का उपासक बन अपने ५०० मुनियों के साथ आचार्य देवगुप्तसूरि के पास जैनदिक्षा को स्वीकार करली। .मात्मार्थी विद्वानों कि यह ही तो एक खूबी है कि सत्य वस्तु समझमें आ जानेपर किसी प्रकार के बन्धन नहीं रखते हुए शीघ्र