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(७२) जैन जाति महोदय प्रकरण पांचवा. सत्यके उपासक बन जाते है । विद्वानों के लिये हठ कदाग्रह नहीं हमा करते है चाहे चिरकालसे अपनाइ हो पर यह असत्य मालुम होती हो तो उसको एकदम धीकारके साथ त्याग कर देते है यह ही हाल हमारे सिद्धपुत्राचार्य का हुआ कि उसने अहिंसा भगवती का सच्चा स्वरूप को समझ के पूर्व सेवित महान् पापका पश्चाताप करते हुए उसी सभा में खड़ा हो कहने लगा कि सज्जनो ! "माहिंसा परमो धर्मः" एक विश्वका धर्म है इस में किसी प्रकारका सन्देह नहीं है पर कितनेक स्वार्थप्रिय लोगोंने उनका स्वरूप ठीक नहीं समझकर घोर हिंसा को ही हिंसा मान ली है खुद मेरा भी यह ही हाल हुआ परन्तु परमोपकारी महात्माओं कि कृपासे आज मैं ठीक तौरपर समझ गया हूं कि जैनधर्मने अहिंसा तत्व को बड़ी खूबीसे माना है और मैंने इस बात को ठीक सोच समझ करके ही जैनधर्म का सरण लिया है अतःएव आप भी इस पवित्र धर्म को स्वीकार कर आत्म कल्यान करें सत्य धर्म को स्वीकार करने में मान अपमान का खयाल करना यह एक आत्मा की निर्बलता है इत्यादि उपस्थित जनसमूह पर जैनधर्म का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा और राजा प्रजा प्रायः सब लोगोंने पवित्र जैन धर्म को स्वीकार कर जैनधर्म की जयध्वनि के साथ सभा विसर्जन हुई नगरभर में जैन धर्म की खूब प्रभावना और प्रशंसा होने लगी।
_ सिद्धपुत्र मुनि पहिले से ही अच्छे विद्वान थे बाद आचार्य देवगुप्तसूरि के पास जैन सिद्धान्त का अभ्यास कर भाप एक उप कोटी के विद्यानों की पंजी में गिने जाने लगे। प्राचार्य देवगुप्त सूरिने