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अदान्तों का खर्चा. लानाए रच दी थी कि समाज में कितना ही वैमनस्य हो जाय, परन्तु उनको अदालतों का मुंह देखने की आवश्यकता नहीं रहती थी कारण वे अग्रेसर लोग न्यायपूर्वक घर के घर में ही समझा देते थे, इतना ही नहीं पर इतर जातियों का इन्साफ भी हमारी समाज द्वारा ही हुआ करता था.
आज हम अदालतों की तरफ नजर करते हैं तो जहां तहां विशेष कर हमारे जैनी भाई ही दष्टीगोचर होते हैं, जिस समाज में टंटा फीसाद कर अदालतों के मुंह देखने में ही महान् पाप समझा गया था आज वही समाज हलफ उठा करके सत्यासत्य गवाहियों दे रही है। साधारण ममुली बातों के लिए हमारे धनाढ्य वीर हजारों लाम्खों रूपये बरबाद कर देते है साल भर में सो पचास रूपये शुभ कार्य में खर्चना तो शेठजी को मुश्किल हो जाता है तब वकील बारिष्टरों को रात्री में गुप चुप हजारों लाखों मिल जाते हैं । "क्षमा वीरस्य भूषणम् " महावीर प्रभु के इस सिद्धांत को भूल कर के आज समभाव, सामायिक, और प्रभुपूजा करनेवाले एक ही देवगुरु के उपासक तो क्या पर एक पिता की सन्तान एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए झूठी गवाहियों देने में तनिक भी नहीं हिचकते हैं। हजारों लाखों रूपैये धूवे की भान्ति उडा देते हैं इन धनाढ्योंने इस शंक्रान्तरूपी ( चेपी ) रोगको आज साधारण जनता में भी यहां तक फैला दिया है कि शायद ही ऐसा आदमी बचा होगा कि जिसने अपना नाम कोर्ट-कचहरी में न