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________________ राजाधिकार में मतभेद. ( ४३ ) वश्य अपमान करेगा ! अगर चंद्रसेनकों राज दे दीया जाय तो राजमे अवश्य विग्रह पैदा होगा, इस विचार सागर मे गोताखाता हुवा राजाको एक भी रास्ता नहीं मीला पर काल तो अपना कार्य कीया ही करता है राजा की चित्तवृत्ति को देखएक दिन चन्द्रसेनने पुच्छा कि पिताजी आपका दील में क्याविचार है इसपर राजाने सब हाल कहा चन्द्रसेनने नम्रतापुर्वक मधुर वचनों से कहा कि पिताजी श्रापतो ज्ञानी हो श्राप जानते हे की सर्व जीव कम्मधीन है जो जो ज्ञानियोने देखा है प्रर्थात् भवितव्यता होगा सो ही बनेगा, आप तो अपने दिलमें शान्ति रखो जैन धर्म का यह ही सार है मेरी तरफ से आप खातरी रखिये कि मेरी नशोमें आपका खुन रहेगा वहां तक तो में तन मन और धन से जैन धर्म की सेवा करूंगा । इससे राजा जयसेन को परम संतोष हुवा तद्यपि पनि अन्तिम अवस्था में मंत्रियो व उमगवो को खानगीमे यह सूचन करदीथी की 'मेरे पीछे गज़गादी चन्द्रसेन को देना कारण वह राज के सर्व कायों में योग्य है इत्यादि सूचना करदी फिर गजातो अरिहंतादि पंचपरमेष्ट्री का स्मरण पूर्वक इस मृत्युलोग और नाशमान शरीर का त्याग कर स्वर्गकी तरफ प्रस्थान कर दीया. यह सुनते ही नगरमे शोक Share का गये. हाहाकार मचगया, तत्पश्चात् सबलोगोने मिलके राजाकी मृत्यु क्रिया वडाही समारोह के साथ करी बाद राजगादी के विषयभे दो मत हो गयें एकमत का कहनाथा कि भीमसेन बडा है। वास्ते राज़का अधिकार भीमसेनको है जब दूसरा मत कह रहा था की महाराज जयसेनका अन्तिम कहना है कि राज चन्द्रसेन को देना
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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