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________________ ( ४४ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. और चन्द्रसेन राजगुण धैर्य गांभिर्य वीरता पराक्रमी और राज तंत्र चलाने भी निपुण है इन दोनो पार्टियोके वादविवाद यहां तक बड गया की जिस्का निर्णय करना भुजबलपर पडा, पर चन्द्रसेन अपने पक्षकारोको समजादीया की मुझे तो राजकी इच्छा नहीं है आप अपना हठको छोड दीजिये, कारण गृह कलेशसे भविष्यमें बडी भारी हानी होगा इत्यादि समझाने पर उन्होंने स्वीकार कर लिया बस | फिर था ही क्या ब्राह्मणों आदि शिवोपासकोका पाणि नौ गज चढ गया East धामधूम से भीमसेनका राज्याभिषक हो गया. पहला पहल ही भीमसेनने अपनी राजसताका जोर जुलम जैनोपर ही जमाना शरु कीया। कभी कभी तो राजसभामे भी चन्द्रसेनके साथ धर्म्म युद्ध होने लगा । तब चन्द्रसेन ने कहा कि महाराज अब आप राजगादीपर न्याय करने को बिराजे है तो आपका कर्तव्य है की जैनोको और शिवोको एक ही दृष्टिसे देखे, जैसे महाराजा जयसेन परम जैन होने पर भी दोनो धम्मं वालोको सामान दृष्टिसे ही देखते थे में आपको ठीक कहता हुँ कि आप अपनी कुट नीतिका प्रयोग करोगे तो आपके राजकी जो आबादी है वह श्राखिर तक रहना असंभव है इत्यादि बहुत समजाया पर साथमे ब्राह्मणलोग भी तो राजाकी श्रनभिज्ञताके जरिये जैनोसे बदला लेना चाहाते थे भीमसेनको राजगादी मीली उस समयसे जैनोपर जुलम गुजारना प्रारंभ हुवा था वह श्राज जैन लोग पुरी तंग हालत में पडे । तब चन्द्रसेन के अध्यक्षत्वमे एक जैनोकी बिराट सभा हुई उसमें यह प्रस्ताव पास हुवा कि तमाम जैन इस नगरको छोड देना चाहिये इत्यादि । बाद चन्द्रसेन अपना दशरथ
SR No.002448
Book TitleJain Jati mahoday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar Maharaj
PublisherChandraprabh Jain Shwetambar Mandir
Publication Year1995
Total Pages1026
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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