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अशोक.
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की
इस की धार्मिक भाशाओं के अध्ययन से पता पड़ता है कि वह भारत का सम्राट था । लोकोपकारी कार्यों को करना उसने अपना धार्मिक कर्त्तव्य ठहराया था । उसने ठौर ठौर सार्वजनिक मार्ग पर आवश्यक्तानुसार कुए, तालाव, बाग, बगीचे, सड़कें और पथिकाश्रम बनवाए । बौद्ध श्रमणों के हित उसने जगह जगह संघाराय ( मठ ) बनवाए तथा बुद्ध उसने तांता ही लगा दिया। पहाड़ों के अन्दर हित गुफाएँ बनाने की भी उसने योजना तथा व्यवस्था की । बुद्धने वो केवल अपने मत का कलेवर ( देह ) मात्र ही तैयार किया था पर उस में जीवन प्रदान कर उसे जगाने का कार्य यदि किसीने प्रयत्न जी तोड़ कर के किया तो अशोकने किया । ठीक उसी तरह से जिस प्रकार इस के पिता और पितामह बिन्दुसार चन्द्रगुप्तने जैन धर्म का प्रचार किया था उसी प्रकार अशोकने बौद्ध धर्म का प्रचार किया । किन्तु अशोक में एक बात की बड़ी खूबी थी वह दूसरे वेदान्तियाँ या बौद्धों की तरह दूसरे धर्मवालों से जातीय शत्रुता न तो रखता था न रखनेवालों को पसंद करता था । दूसरे मतबालों की भोर तो वह देखता भी नहीं था पर जैनियाँ के प्रति तो उसे स्वाभाविक सम्झनुभूति थी । अशोकने 1 अपनी शेष आयु धर्म प्रचार एवम् शांति से ही व्यतीत की । अशोक के पुत्रो में दो मुख्य थे- एक कुणाल और दूसरा वृहद्रथ ( दशरथ ) ।
अशोकने कुणाल को उज्जैन भेज दिया था । वहाँ उसकी
मूर्तियों का तो
श्रमण समाज के